“वे
कल्याण के पथ पर चलने वाले बनें, शुभ संकल्प उनके मनों में उठें” “परमात्मा उनकी
बुद्धि को सन्मार्ग की ओर ले जाने की प्रेरणा बनें”, “सारथि बन कर बुद्धि को
हांकने वाले बनें” हजारों वर्ष पूर्व वैदिक ऋषियों ने यह प्रार्थना की थी जो आज भी
प्रेरणा देती है. सद्विचार और सद्वाक्य उन हीरे-मोतियों की तरह हैं जिनसे मन का
श्रंगार करना है. अशुद्ध विचारों को न तो प्रश्रय देना है न पोषण करना है क्योंकि
एक बार अतिथि की तरह आया अशुभ संकल्प धीरे-धीरे किरायेदार और फिर मालिक बन बैठता
है. मन यदि मधुसूदन का मनन करे तो वहाँ शुभ संकल्प ही उठेंगे तो सर्वप्रथम मन को
उस मनमोहन का दीवाना बनाना है. वह जल्दी किसी को मिलता नहीं और जब एक बार मिल जाये
तो बिछड़ता भी नहीं. कल शाम भागवद् में कृष्ण द्वारा उद्धव को दिए गए उपदेश पढ़े,
उसकी बातें अनोखी हैं. किस-किस तरह से कथाओं के माध्यम से वह समझाता है कि
सांसारिक संबंध क्षणिक हैं, वे अपने प्रतिदिन के जीवन में अनेकों बार इसे देखते,
जानते तथा समझते हैं, पर फिर भूल जाते हैं और फिर पूरी तरह से संसार में डूबते चले
जाते हैं. उनके हृदयों में नित्य सद्गुरु का प्रवचन चलता रहे तभी मार्ग प्रशस्त
होगा. कबीर हों या नानक सभी ने इस बात को समझाया है और आज भी सद्गुरु उन्हें समझा
रहे हैं. ईश्वर उनके अंतः करण में प्रकट होना चाहते हैं, वे स्वयं ही अपने हृदय का
मार्ग अवरुद्ध कर लेते हैं. भक्ति का रस हृदय में प्रकट हो जाये तो संसार के सारे
रस फीके लगने लगते हैं, क्योंकि शाश्वत के साथ सनातन संबंध है, अनेक जन्मों के बाद
भी वह संबंध टूटता नहीं है, वह उनकी प्रतीक्षा कर रहा है और उसने उस कान्हा को
अपना मीत बनाया है. प्रकृति उसी चैतन्य की अध्यक्षता में काम करती है, वही इस जग
का आधार है !
कृष्ण ने कहा है, “उद्धव ! जो लोग समस्त भौतिक इच्छाएं त्याग कर अपनी चेतना
मुझमें स्थिर करते हैं वे मेरे साथ उस सुख में हिस्सा बंटाते हैं जो इन्द्रिय
तृप्ति में सलंग्न मनुष्यों के द्वारा अनुभव नहीं किया जा सकता”. भागवद् में इस
तरह के अनेकों श्लोक हैं जिन्हें पढ़कर मन भावविभोर हो जाता है. कृष्ण कितने उपाय
बताते हैं और उन्हें सांत्वना देते हैं वह अपने भक्त के पूर्ण कुशल-क्षेम की
जिम्मेदारी ले लेते हैं ! और वह स्वयं अपना अनुभव देते हैं, उन्हें पाना कितना सहज
है और एक बार मिलने के बाद कभी बिछड़ते नहीं, इस जन्म में ही नहीं मृत्यु के बाद भी
और जन्म जन्मान्तर तक ! गुरूमाँ कहती हैं देर साधक की ओर से है उसकी ओर से नहीं,
कृष्ण को कोई प्रेम करे तो वह स्वयं ही उसके चक्कर काटने लगता है ! द्रौपदी कृष्ण
को अपना सखा मानती थी सो उसकी पुकार पर वह सदा आते हैं, पर उसके लिए पहले कृष्ण का
भक्त बनना होगा. संसारी बनकर कोई उसे पा नहीं सकता. संसारी के हृदय में हजारों
कामनाएं और इच्छाएं होती हैं, यदि उसमें कहीं एक इच्छा यह भी हो कि ईश्वर उसे
मिलें तो वह इन इच्छाओं की भीड़ में दबकर रह जाएगी पर भक्त के मन में कोई इच्छा
नहीं होती, वह सिर्फ भक्ति के लिए भक्ति करता है, प्रेम के लिए प्रेम करता है. उसके
जीवन में विशुद्ध आनंद है, निर्भयता है,
आत्मविश्वास है, मुक्ति है ! दिन-प्रतिदिन के जीवन में ऐसे अनेक क्षण आते हैं जब
आत्मा पर मैल का धब्बा लगता है, भक्ति तत्क्षण उस धब्बे को धो देने की प्रेरणा
देती है. मोह रूपी इस जंगल में वे रास्ता खो देते हैं तो ईश्वर ही उन्हें मार्ग
बनाते हैं, कल रात भी स्वप्न में कृष्ण की स्मृति बनी रही !
पिछले दो दिन कुछ नहीं लिखा. शनिवार को गणतन्त्र दिवस था, सुबह संगीत सीखा,
फिर वे परेड देखने में व्यस्त हो गये. जो सदा की तरह भव्य थी. कल इतवार था सो नहीं
लिख सकी. आज पूर्णिमा है, जून ने सुबह शकरकंदी भून कर दी. कल एक साधू को भिक्षा
नहीं दे पायी, इसका बहुत अफ़सोस हुआ. शाम को छोटी बहन व भाभी, भैया के फोन आये, सभी
ने माँ को प्रथम पुण्यतिथि पर याद किया वह ही सुबह से भूली रही. गुरूजी की बात याद
आगयी कि जो सबसे ज्यादा जुड़ा होता है वही सबसे ज्यादा विरक्त होता है या आजकल उसका
मन कृष्ण के रंग में इतना रंग गया है कि उसे सांसारिक मोह-माया नहीं व्यापते. पर कृष्ण
ने यह भी कहा था कि स्व को इतना विस्तृत
करना है कि उसमें सभी समा जाएँ ! स्व का विस्तार भी बेतुका नहीं होना चाहिये,
संतुलित होना चाहिए. एक तालमेल होना चाहिए तो जीवन मधुर हो जाता है, प्रेम की धारा
प्रवाहित होने लगती है.
मुझे तो आपकी भागवद्पुराण की बातें मुग्ध कर रही हैं. कृष्ण के समस्त उपदेश एक मनोवैज्ञानिक अध्ययन से कम नहीं. कृष्ण के उपदेश की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे कभी स्वयम को सामने वाले के स्तर तक नहीं लाते बल्कि सामने वाले के स्तर को उठाकर अपने स्तर पर ले आते हैं. आज भी प्रासंगिक हैं कृष्ण भगवान की शिक्षा...!
ReplyDeleteमाता जी की बरसी पर मेरे भी श्रद्धा सुमन!