जब कोई मर्यादा को तोड़ देता है तब पतन निश्चित है. ज्ञान की अग्नि में मन रूपी
सोने को उन्होंने तपाया है किन्तु ज्ञान की मर्यादा का भंग भी वे कर देते हैं. सत्य
तो यह है कि स्वयं को मुक्त जानकर मर्यादा रखते ही नहीं, बड़ों के प्रति सम्मान भी
एक मर्यादा है, वाणी की भी मर्यादा है. उनके भीतर की ग्रन्थियों को जो खोल दे वही
तो मर्यादा है. मर्यादा भंग करते-करते वे इतने असंवेदनशील हो गये हैं कि जिनके
प्रति व मर्यादाहीन हो रहे हैं उनकी भावनाओं का भी ध्यान उन्हें नहीं आता. आज जून
दिल्ली गये हैं, दो दिन बाद आएंगे. उसे आराम से रामकथा सुनने का मौका मिला है. संत
कह रहे हैं सोच को हृदय तक लाना आयास-प्रयास से नहीं होता, ज्ञान को प्रेम में
बदलना सायास नहीं होता. हृदय में स्वतः आना ही ज्ञान की सफलता है. बुद्धि और हृदय
जब एक हो जाते हैं तभी योग होता है. हृदयवान व्यक्ति जब बुद्धि के बहकावे में आ
जाये तो घाटे का सौदा है पर बुद्धिमान व्यक्ति जब हृदय के क्षेत्र में आ जाये तो यह
परमात्मा तक की यात्रा है. निरंतर उस तत्व से जुड़ जाना ही संतुष्टि है. ऐसा संतोष
जब मिलता है तब सारी तृष्णायें छोटी हो जाती हैं. असंगता, समता, निरभिमानी होना,
अक्षोभता तथा अनंतता ये सभी ज्ञान की मर्यादाएं हैं. प्रेम की प्रगाढ़ता में ये
टूटती हैं पर तब ज्ञान सफल हो जाता है. प्रेमी असंग नहीं होता, वह समता भी नहीं रख
पाता, विरह उसे सताता है. प्रेमी अभिमानी भी है, उसे प्रियतम का और अपने प्रेम का
अभिमान है. हाँ, प्रेम भी अनंत होता है. इसलिए इसकी तो चिंता ही नहीं करनी चाहिए
यदि वे सभी को प्रेम बांटते रहे तो उनके पास कम हो जायेगा और यदि कोई बदले में
उन्हें प्रेम न दे तो वे खाली हो जायेंगे, बल्कि जब कोई किसी को प्रेम देगा तो वह
अपने आप पुनः भर जायेगा. परमात्मा ही तो प्रेम है, वही तो आनन्द है, शांति है, तो
जब कोई किसी को इनमें से कुछ भी देता है तत्क्षण वह जगह भर जाती है. आज पुस्तकालय
में मीटिंग थी, मुख्य अतिथि को उसने आदरपूर्वक असमिया गमछा पहनाया. आज की कथा में
यह शेर भी सुना था पता नहीं किसका लिखा है-
‘ये तुझसे किसने कहा कि दिल गम से तबाह नहीं
ये और बात है कि मेरे लब पे आह नहीं
एक मैं हूँ कि सरापा सवाल हूँ
एक तू है कि तुझे फुर्सते निगाह नहीं !’
निदा फाजली की पुस्तक “खोया हुआ सा कुछ” उसने पढ़ी, कल से पढ़ रही है. एक आत्मकथात्मक उपन्यास
भी पढ़ा था. हर लेखक/ कवि/ कलाकार के भीतर साझा दर्द होता है, साझी खुशियाँ होती
हैं. प्रकृति के विभिन्न रूपों से प्रेम, ईश्वर की मौजूदगी का अहसास या तलाश और
रिश्तों को गहराई से महसूसने की ताकत, भीतर उमड़ता ढेर सारा प्यार, जिसे बिखरने के
लिए कोई रास्ता नहीं नजर आता. निदा फाजली से पाठक का एक रिश्ता बन जाता है, वह उसे
अपना जैसा लगता है. उनके दोहे भी अच्छे लगे. सीधे-सादे शब्दों में दिल की बात, दिल
की गहराई से निकली बात ही दिल को छू जाती है.
‘वो सूफी का कौल हो या पंडित का ज्ञान
जितनी बीते आप पर उतना ही सच जान
माटी से माटी मिले, खो के सभी निशान
किसमें कितना कौन है कैसे हो पहचान
युग-युग से हर बाग़ का ये ही एक उसूल
जिसको हँसना आ गया वो ही मिट्टी फूल
जीवन भर भटका किये खुली न मन की गाँठ
उसका रस्ता छोड़कर देखी उसकी बाट’
आज तीज है, सावन के शुक्ल पक्ष की तीज. उसने
सुबह-सुबह मंझले व बड़े भाई तथा बड़ी बुआ से बात की. जून कहते हैं वह भावनाओं को
ज्यादा महत्व देती है, बुद्धि को कम. भावना के साथ-साथ बुद्धि का होना भी कितना
आवश्यक है, मात्र भावना के कारण वह कितनी बार मूर्ख बनी है. मुरारी बापू कहेंगे,
कोई बात नहीं, मूर्ख बनी है न, किसी को बनाया तो नहीं. खैर, ओशो कहते हैं कि
बेवकूफ ही परमात्मा के मार्ग पर चल सकते हैं, पर वह कहते हैं ऐसा बेवकूफ बुद्द्धि
का अतिक्रमण कर जाता है, यहाँ तो बुद्धि के लाले पड़े हैं, लांघने की बात ही नहीं
है. परमात्मा की कृपा तो हर क्षण बरस रही है, लूट मची है, इतनी ज्यादा है कि दोनों
हाथों में नहीं समाती, अनवरत बरस रही है, लगातार उसकी कृपा हरेक पर बरस रही है. वे
आँखें मूँदे बैठे रहें तो कोई क्या करे. वर्षा पुनः शुरू हो गयी है. दस बजे तक रुक
जानी चाहिए. आज सुबह स्वीपर नहीं आया, अब आया है जो उसके ध्यान का समय है. दस बजे
एक परिचिता के यहाँ जाना है, उसे समय दिया है. पूजा की छुट्टियों वे यात्रा पर
जायेंगे. जून ने अभी से टिकटें कर दी हैं. उनके जीवन में पहले से कहीं अधिक
क्रियाशीलता है, इसका पता कल बनाई लिस्ट देखकर लगता है. उसे भी अपनी ऊर्जा का पूरा
उपयोग करना है. आजकल कितने अनोखे अनुभव होते हैं, जैसे वह है ही नहीं, बस वही है.
उसके हाथों की जैसे कठपुतली है, वह जैसा कहे वैसा करती जाये. कितना असीम है वह और
कैसे एक मानव के हृदय में समा जाता है. कितना असंग है पर लगता है उसका संग कभी
छूटता ही नहीं ! वह जादूगर है !