Friday, November 27, 2015

चाँदी की पायल


आज सदगुरु ने अभ्यास और वैराग्य पर प्रकाश डाला, जिसे साधक चित्त की वृत्तियों को शांत कर सकें. अभ्यास के लिए समय की आवश्यकता है पर वैराग्य काल निरपेक्ष है. जिस क्षण किसी को चैतन्य सत्ता से प्रेम हो जाता है जगत तत्क्षण फीका पड़ जाता है, यही तो वैराग्य है. एक बार जिसने अमृत चख लिया हो वह पुनः विष की तरफ कैसे जायेगा ? सदगुरु कितने सहज होकर सरल शब्दों में पुनः पुनः पथ पर लौटा लाते हैं, उन्हें जो बार-बार रास्ते से भटक जाते हैं. आज बहुत दिनों के बाद ध्यान की गहराई को महसूस किया. मन कितना गहरा है उन्हें इसकी कोई खबर ही नहीं है. भीतर अनंत शक्ति छिपी है इसकी भी खबर नहीं है. छोटी-छोटी चीजों के पीछे जाकर वे अपना समय और शक्ति नष्ट करते रहते हैं. उस खजाने को अनछुआ ही छोड़ देते हैं. बहुत हुआ तो थोड़ा सा ही पाकर संतुष्ट हो जाते हैं. झलक मात्र से ही संतुष्ट हो जाते हैं. पुनः-पुनः लौटकर आने में जो अब तक का कमाया था वह नष्ट प्रायः ही हो जाता है जैसे कोई एक तरफ से झोली में डाले और नीचे से निकलता जाये तो कैसे भरेगी झोली और फिर वे भरने का प्रयास ही छोड़ देते हैं. अध्यात्म का पथ निरंतर सजगता का पथ है, एक-एक क्षण में सजग. कभी भी यह न मानें कि जान लिया, पा लिया, यह तो जीवन भर की साधना है !

‘कुछ हूँ’ से ‘हूँ’ तथा ‘हूँ’ से ‘है’ तक की यात्रा ही अध्यात्म की यात्रा है. जब ‘है’ की अनुभूति होती है तो कोई भेद नहीं रहता. मुक्त अवस्था तभी मिलती है. आज सुना अभ्यास के द्वारा जो समाधि मिलती है वह असम्प्रज्ञात है, प्रेम, श्रद्धा तथा वीरता से भी समाधि घटती है. मन जब अपने मूल स्वरूप में टिक जाये तत्क्षण समाधि घटती है. आज ध्यान में उसे कुछ अनोखे दृश्य दिखे. चाँदी की पायजेब पहने सुंदर पैर, सम्भवतः कृष्ण के वे चरण जो वह उनकी मूर्ति में देखती है. रंग, प्रकाश और ध्वनि..यह आत्मा का ही स्फुरण है, उसी की ज्योति है, उसी का नाद है, उसके ही रंग हैं, मन जब ठहर जाता है तो ये सब दीखते हैं, इनसे परे वह दृष्टा है जो इन्हें देखता है और द्रष्टा से भी परे  जो है वही वह सत्ता है जिसका कोई नाम नहीं है, कोई रूप नहीं है. जो है. मन न रहे अर्थात मन ठहर जाये तो जगत भी लुप्त हो जाता है. मन ही तो जगत है. उन्हें मन को खाली करना है तब वह प्रकाश और नाद से भरेगा जब उससे भी खाली होगा तब केवल परमात्मा ही रहेगा. सच्चिदानंद स्वरूप परमात्मा, उसे कोई भी नाम दें वह एक ही सत्ता है.


आत्मा में रहना जिसे आ जाये उसे मन परेशान कैसे कर सकता है. आत्मा शुद्ध, बुद्ध, चिन्मात्र सत्ता है, वह आकाशवत् है, मन उसमें उठने वाला एक आभास ही तो है, आभास से न तो डरने की आवश्यकता है न ही उसमें बंधने की जरूरत है ! मन को जब वे अलग सत्ता दे देते हैं तभी दुःख का शिकार होते हैं. जहाँ द्वैत है वहीं दुःख है. विचार भी उसी आत्मा की लहरें हैं जो आनन्दमयी है. भीतर उठने वाले सारे संशय, डर तथा भ्रम उसी आत्मा से ही उपजे हैं, वे दूसरे नहीं हैं, उनसे कैसा डर, विचार तो शून्य से उपजा है और शून्य में ही विलीन हो जाने वाला है. सागर क्या अपनी लहरों से कभी डरेगा, चाहे लहर कितनी भी विशाल क्यों न हो, आकाश क्या बादलों की गर्जन से डरेगा ? वे क्यों अपने मन से डरते हैं, वे सागर की तरह गहरे तथा आकाश की तरह अनंत हैं, वे निर्मल हैं, स्वच्छ पावन हैं. एक भी दुर्गुण उनके भीतर प्रवेश नहीं कर सकता. वे जो हैं वहाँ न कोई गुण है न दुर्गुण वहाँ कुछ भी नहीं है. निर्दोष अनछुए वे शुद्ध प्रकाश हैं, प्रकाश का कोई आकार नहीं. वे उससे भी सूक्ष्म हैं, ऐसा प्रकाश जो भौतिक नहीं है, जो पदार्थ से परे है, ऐसी ध्वनि जो अनाहत है ऐसे स्पंदन जो स्वतः हैं, वे उन सबसे भी परे हैं, मन, बुद्धि आदि तो सहायक हैं उनके न कि दुश्मन, जिनसे बचने के लिए वे ..?  

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