Monday, March 16, 2015

मूंग का हलुआ


आज पूर्णिमा है. उसके हृदय गगन में भी परमात्मा रूपी चन्द्रमा का आगमन होगा ऐसी सूचना मिल रही है. मन शांत है, ध्यानस्थ है, सद्गुरु की छवि हटती नहीं. सुमिरन अपने आप चलता है. ईश्वर को छोड़कर कोई विचार मन में नहीं टिकता. एक उसी की याद हर वक्त बनी हुई है और कैसी अद्भुत गहराई का अनुभव हो रहा है. जैसे सब कुछ ठहर गया हो. सारा जगत स्थिर हो मन की तरह, कहीं कोई उहापोह नहीं, विक्षेप नहीं, अद्भुत है यह क्षण ! कल दोपहर स्वामी योगानन्द जी की आत्मकथा पढ़ी. साधना के अनगिनत सूत्र उनकी इस पुस्तक से हाथ लगते हैं. पढ़ते-पढ़ते मन ध्यान में टिक जाता है. परसों ध्यान में आवाज सुनी थी “निरभिमानी बन” उसके और प्रभु के मध्य अहंकार का पर्दा ही तो है, इसे चूर-चूर करना होगा. मन के सूक्ष्म अहंकार को निर्दयता से उखाड़ फेंकना होगा. कठोर बनना पड़ेगा मन के प्रति, कड़ी नजर रखनी होगी कि कहीं कोई भाव ऐसा तो नहीं आ रहा जो अहंकार को पोषित करे. पूर्ण समर्पण तभी सम्भव है. सद्गुरु इतनी दूर रहकर भी उसे सचेत कर रहे हैं. सुबह स्वप्न देखा जो उसकी एक और कमजोरी की ओर ध्यान दिला रहा था. मिथ्याभाषण अथवा तो आवश्यकता से अधिक भाषण, एक बात को बार-बार कहने की बुरी आदत, नन्हे और जून को कई बार इसका शिकार होना पड़ा है. ज्यादा बोलने से बातें अतिरंजित भी हो जाती हैं और निर्दोष असत्य भी मुख से निकल जाता है. कल शाम को सत्य का सामना वह ठीक से नहीं कर पायी. हर क्षण सजग रहना होगा तभी पाषाण हृदय चमक उठेगा और उसमें परमात्मा की छवि प्रकट होगी. कृष्ण की गीता पढ़े या सद्गुरु के वचन सुने सभी मन की शुद्धि चाहते हैं !   

उसका हृदय परमात्म सुख से परिपूर्ण है, कोई होश में रहे तो विकार पास नहीं फटकते और यदि कोई भाव ऐसा उठा भी तो होश में उसे देखा जा सकता है. सुबह उठी तो एक स्वप्न देख रही थी. उसके हाथ में स्वादिष्ट हलुआ है, शायद मूंग की दाल का, शुद्ध घी और मेवों से युक्त, मीठा और स्वादपूर्ण पर दो छोटी बच्चियों के कारण बहुत सा व्यर्थ जमीन पर गिर जाता है. सपना सचेत करता है कि परमात्मा का जो आनंद उसे मिला है उसे छोटे-छोटे सुखों के पीछे कहीं व्यर्थ न गंवा दे. सुबह क्रिया के बाद किसी के होने का, किसी अशरीरी के होने का अहसास हुआ, एक लय में जैसे किसी के साँस लेने की आवाज आ रही थी. बहुत पहले भी उसे ऐसा अनुभव हुआ था. सद्गुरु की स्मृति भी हर क्षण रहती है, ऐसा लगता है जैसे उनसे मानसिक सम्पर्क बन रहा है. वह उसकी प्रार्थना ईश्वर तक पहुँचा देते हैं क्योंकि वह हर क्षण उनसे जुड़े रहते हैं. ऐसा लगता है सारे संशय मिट गये हैं और अंततः एक ऐसा प्रकाश मिला है जो उसे कभी छोड़ नहीं सकता. कृष्ण की अनुकम्पा है. यह सारा विश्व उसी का विस्तार है. उस एक की शक्ति ही हर ओर बिखरी है. जिसके मूल में प्रेम है अहैतुक प्रेम ! यह संसार प्रेम से ही बना है, प्रेम पर ही टिका है और प्रेम में ही स्थित है ! 

कल शाम वे एक विवाह भोज में गये. कल रात स्वप्न में माँ को देखा, वह ठीक नहीं लग रही थीं, अस्त-व्यस्त सी कहीं जा रही थीं. दीदी की सास को भी कल बहुत सालों के बाद स्वप्न में देखा, कहीं ऐसा तो नहीं उनकी आत्माएं ही उसे दिख रही हों. आत्मा का अस्तित्त्व शरीर छूटने के बाद भी रहता है. वह इतनी सूक्ष्म होती है कि दिखती नहीं, तरंग का सा रूप होता है, एक ऊर्जा ! वास्तव में प्राणी सारा जीवन उस मृत्यु की ओर पल-पल बढ़ते रहते हैं जो अवश्यम्भावी है, फिर भी वे उसके लिए कोई तैयारी नहीं करता. मृत्यु से पूर्व ही उन्हें यह जानने का प्रयास करना है कि वे कहाँ से आये हैं, क्योंकि वहीं लौटना होगा..


No comments:

Post a Comment