कर्तापन का दंश लगा है जीव को, साक्षी इसका इलाज है. वास्तव में
आत्मा न करता है न भोक्ता. स्वयं का पता नहीं है सो कभी देह, कभी मन के साथ स्वयं
को जोड़कर देखता है, वही मान लेता है खुद को और उनके द्वारा किये कर्मों को स्वयं
द्वारा किया मानेगा ही. वे तो प्रारब्ध वश अथवा तो संस्कारों वश अपना काम करते हैं
और आत्मा यदि अपने-आप में रहे तो मन, बुद्धि में कभी कुछ इधर-उधर हुआ भी तो वह
स्वयं को उसका कर्ता नहीं मानेगा. आज बहुत दिनों के बाद सद्गुरू की वाणी सुनी,
जैसे तन को रोज विश्राम और भोजन की आवश्यकता होती है, वैसे ही मन को भी नियमित
विश्राम व भोजन चाहिए. मन का भोजन है सत्संग और मन का विश्राम है ध्यान, सो आज से
पुनः ध्यान, योग और सत्संग आरम्भ किया है. जीवन को यदि सुंदर बनाना है तो ये सभी
आवश्यक हैं. ‘पाठ’ भी नियमित करना होगा. पुरानी दिनचर्या को अपनाना होगा, जिसमें
विविध रंग हैं.
बहुत दिनों पूर्व यह इच्छा मन में जगी थी कि बड़े
घर के बगीचे में पेड़ के तने से सटकर बैठेगी और कुछ लिखेगी. आज जामुन के पेड़ के
नीचे है.
मन की झील में आत्मा का कमल खिलाना है
संस्कारों की मिट्टी है जहाँ
वहीं से रंगो-खुशबू को बाहर लाना है
क्योंकि छिपा है एक स्रोत शुद्ध जल का
मिट्टी की गहराई में
माना चट्टानें भी होंगी मध्य में
कठिन होगी यात्रा
पर जीवन को यदि सचमुच पाना है
तो.. मन की झील में आत्मा का कमल खिलाना है
धूप तेज लग रही है सो लगता है छायादार वृक्ष
खोजना होगा. यह सफेद फूलों वाला वृक्ष छाया में है पर यहाँ आस-पास एक अजीब सी गंध
है. शायद बाहर से आ रही है या इस वृक्ष की ही गंध है. बिन पत्तों की इसकी शाखाएं
कैसी कलाकृति का निर्माण कर रही हैं, एक डाली पर तीन फूल खिले हैं, जिनमें मध्य
भाग पीत है. आज उन्हें तिनसुकिया भी जाना है, जीवन वैसे ही चलता रहता है, बाहर कुछ
भी नहीं बदलता पर भीतर सब कुछ बदल जाता है. अब भीतर कोई ज्वर नहीं है, सब कुछ
स्पष्ट दिखाई देता है. कब विकार जगा, कब कामना उठी, कब मन भूतकल में गया, कब
भविष्य की कल्पना में. आत्मा शुद्ध चेतन है, जो प्रकाशक है, जो जानता है, जो देखता
है. जब मन शांत होता है तब केवल शुद्ध चेतन ही शेष रहता है. उसे अब पढ़ते व लिखते
समय चश्मा लगाना पड़ता है, आँखों की रोशनी कम हो रही है, उम्र बढने के साथ देह में
ये परिवर्तन स्वाभाविक हैं. धरती पर बैठकर लिखना अच्छा लग रहा है, पर उसे फोन अपने
साथ रखने चाहिए, शायद फोन की घंटी बज रही है. नैनी लैंड लाइन तो उठा सकती है पर
मोबाइल उसे रिसीव करना नहीं आता. अब अंदर जाना चाहिये, उसने सोचा.
आज मृणाल ज्योति जाना हुआ, दो अन्य महिलाएं भी
थीं. विश्व विकंलाग दिवस के लिए निमन्त्रण पत्र भी मिले, जो सभी के यहाँ भिजवाने
हैं. आज दोपहर के भोजन में सलाद, सूप व फल लिए, काफी हल्का लग रहा है. शाम को वे जल्दी
ही रात्रि भोजन करेंगे और बाद में टहलने जायेंगे. अभी कुछ देर पूर्व बच्चे पढ़कर
गये हैं. उस दिन नैनी के ससुर की हालत पर तरस खाकर जो भाव मन में उठा था, वह सत्य
होता नजर आ रहा है. कुदरत किस तरह उनकी हर बात सुनती है. मन का छोटे सा छोटा विचार
भी उसकी नजर से बच नहीं सकता. परमात्मा की महिमा का जितना बखान करे, कम है. जो
जीवन अपना ही अहित कर रहा हो, जिसके आगे बढने की कोई गुंजाईश ही नजर न आती हो, उसे
बदलना होगा, ताकि एक नया कोरा जीवन पुनः आरम्भ हो. सम्भव है नये परिवेश में वह नये
ढंग से जीये. एक मशीन की तरह जिए चले जाना अपने व औरों के दुःख का कारण बनना कहाँ
तक उचित है ? ईश्वर ही उसका मार्गदर्शक है, वही प्रेरणा देता है, उसके सिवा और कुछ
नहीं. यह देह जब तक रहे, स्वस्थ रहे, मन सजग रहे, बुद्धि भी जगी रहे ताकि न अपने
लिए न औरों के लिए दुःख का कारण बने. अनंत सुख की राशि परमात्मा चरों और बिखरा हुआ
है, उससे जुड़कर ही मानव के भीतर पड़ा वह बीज खिल सकता है, जिसे आत्मा कहते हैं.
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