कल रात्रि विश्वकर्मा पूजा के लिए एक कविता लिखी थी. जून नहीं
हैं वरना आज वे उनके विभाग में होने वाली पूजा में सम्मिलित होते. रात को शुरू हुई
वर्षा सुबह तक हो रही थी. परसों बड़ी भांजी से स्काइप पर बात हुई, आज छोटी बहन से
हुई. उस दिन जब भांजी से उसके यहाँ जाने की बात की, वह ऐसे बात कर रही थी जैसे उसे
कुछ समझ ही न आ रहा हो, उस दिन कुछ अजीब तो लगा था पर सोचा था शायद वह उसकी बात
समझ न पायी हो अथवा तो उसे सुनाई ही न दी हो, पर आज छोटी बहन ने कहा, किसी कारण वश
वे बच्चे को किसी से मिला नहीं रहे हैं. घर जाकर बच्चे को देखने की उत्सुकता
दिखाना ठीक नहीं होगा, फोन पर ही बधाई देना ठीक रहेगा. कल शाम यात्रा की कुछ
तैयारी भी कर ली है.
पूरा अक्तूबर और आधा नवम्बर भी बीत गया, आज जाकर
कलम उठायी है. इसी बीच दो यात्रायें भी कीं,
पर लिखा कुछ नहीं. कल लिखना शुरू ही किया था कि दूसरे कार्य सम्मुख आ गये और अब
जून का इंतजार करते हुए, मलेशिया से लाये जूट के झूले पर बैठकर, जिसे उन्होंने
बगीचे में लगा दिया है; पंछियों की आवाज सुनते हुए और शीतल पवन का स्पर्श अनुभूत
करते हुए, जब धूप भी छनकर आ रही है और सामने हरियाली की एक चादर बिछी है, वह लिख
रही है. इससे बढ़कर स्वर्ग में कौन सा सुख होता होगा जब मन में ‘उसकी’ याद बसी हो
और कण-कण में वह स्वयं प्रकट होने को उत्सुक हो. जब प्रकृति का नृत्य अनवरत चलता
हो. धूप-छांव का यह जो खेल सृष्टि नटी न जाने कब से खेल रही है, उसका द्रष्टा होना कितना अनोखा अनुभव
है ! नीला आकाश बिलकुल स्वच्छ है, बादल का हल्का सा टुकड़ा भी नहीं है वहाँ, बगीचा
भी स्वच्छ है, अभी फूल खिलने में देर है. गमलों पर गेरुआ लगाना है, जून को याद
दिलाना होगा, मंगवा लें. दोपहर को उसे दो अन्य सदस्याओं के साथ प्रेस जाना है,
क्लब की पत्रिका के कम के लिए. पीछे कुछ मजदूर काम कर रहे हैं, पर वे इतना चुपचाप हैं, पहले उसे अहसास ही नहीं हुआ उनके होने का.
नन्हे का फोन आया, सुबह वह जल्दी-जल्दी उठकर केवल एक सेव खाकर ही दफ्तर जा रहा था,
उसका दिन व्यस्त रहने वाला है आज, ऐसा कहकर वह दो दिन से फोन न कर पाने की बात कह
रहा था.
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