Thursday, June 29, 2017

स्वप्नों का संसार


परसों सुबह पुनः दो स्वप्न देखे, एक में कोई व्यक्ति बाँह में सूई के द्वारा कुछ डाल रहा है, कई लोग हैं, उनमें से एक वह भी है ऐसा कुछ भास हुआ, दुसरे में मृत्यु का अनुभव हुआ, अब दूसरा स्वप्न जरा भी याद नहीं है, पर यह ज्ञात हुआ था कि इस तरह मृत्यु हुई थी. पिछले जन्मों की स्मृतियाँ भी हो सकती हैं ये. परमात्मा ही जानता है. आज सुबह एक स्वप्न में समय बता रही थी कि किसी ने कहा, दस पैंतालीस नहीं दस तिरालिस और नींद खुल गयी. उनके घर का नम्बर तक उसे पता है, उनकी चेतना से कुछ भी छिपा नहीं है, आखिर वह स्वयं ही तो हैं !

फिर छह दिनों का अंतराल, कल रात्रि एक अद्भुत स्वप्न देखा, वह स्नानगृह में है. एक ऊर्जा गले तक चढ़ती है, थोडा भय लगता है पर वह स्वयं को तैयार कर लेती है, पुनः एक ऊर्जा चढ़ती है और उसके बाद होश नहीं रहता, फिर अचानक एक सुंदर चित्र दीखता है, फिर तो एक के बाद एक चित्रों की श्रृंखला शुरू हो जाती है. रंगीन चित्र थे, कला कृतियाँ थीं, जैसे कोई टीवी देख रहा हो. स्वप्न उनके मन में छिपी इच्छाओं को पूर्ण कर देते हैं. ध्यान का गहन अनुभव जागृत में नहीं हुआ सो स्वप्न में कुछ हो गया !

कल रात्रि कोई स्वप्न नहीं देखा, ध्यान की स्मृति आती रही. परमात्मा उस पर अवश्य ही नजर रखे हैं. अभी कुछ देर पूर्व सद्गुरू को बहुत दिनों बाद पत्र लिखा. उन्हें अपने प्रति ईमानदार होना चाहिए, साधना का यह पहला सूत्र है. भीतर जो कुछ भी चल रहा है उसका साफ-साफ पता होना चाहिए. अतीत में जो भी हुआ वह स्वप्न मात्र है. संस्कारों के वश होकर जो भी किया उसको अब बदल नहीं सकते पर अब जो हर क्षण हो रहा है वह होश में रह कर हो. क्लब की पत्रिका छप कर आ गयी है. एक लेख की लेखिका के नाम के आगे भूल से डॉ लिखा गया है, उनसे बात की, पहले तो वह कुछ नाराज दिखीं फिर संतुष्ट हो गयीं. अगले हफ्ते क्लब की मीटिंग में कवियत्री सम्मेलन का आयोजन करना है. सुबह नैनी ने कुछ माँगा तो उसने ले लेने को कह दिया, उसे शायद अच्छा लगा हो, अपने आप ही कुछ काम कर दिए, बिना कहे ही. उसके ससुर के झगड़े से घर के सभी लोग परेशान हो गये हैं. उसे उनके प्रति सहानुभूति होती है. मन के भीतर न जाने कितने संस्कार दबे पड़े हैं, खुद को भी आश्चर्य होता है. परमात्मा हरेक के हृदय में है. वह उसे हर तरह के बंधन से मुक्त देखना चाहते हैं. अहंकार की हल्की सी छाया भी न रहे. मन बिलकुल सपाट नीले आकाश सा हो जाये निरभ्र..निर्मल..तभी तो होगा उसका पदार्पण !

कल शाम को गुरु माँ का अद्भुत प्रवचन सुना. सभी जगे हुए एक ही बात कहते हैं. उनके भीतर जब चैतन्य की शिखा अखंड जलने लगती है, कोई भी घटना उसे कंपाती नहीं, वह स्वयं भी मन, बुद्धि के रूप में व्यर्थ ही नहीं चुकती, तब ही भीतर अखंड प्रेम का साम्राज्य छा जाता है. वही सत्य है, वह अबदल है, सारे द्वंद्व तभी समाप्त हो जाते हैं जब सारी दौड़ समाप्त हो जाती है, सारी चाहें गिर जाती हैं. प्रकृति का खेल समाप्त हो जाता है, आत्मा निसंग हो जाती है, कैवल्य का अनुभव घटता है. द्रष्टा भाव में जो टिक जाता है उसके लिए जगत का क्रिया कलाप एक खेल सा ही जान पड़ता है. रात्रि को फिर कोई स्वप्न देखा हो याद नहीं पड़ता. सारे स्वप्न अधूरी इच्छाओं के कारण ही जगते हैं.


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