परमात्मा से मांगने योग्य एक ही वस्तु है, सद्बुद्धि ! ऐसी बुद्धि
जो सद्कर्मों की ओर प्रेरित करे, जो जीवन को एक अर्थ दे. उनका होना इस जगत के लिए
और परमात्मा के लिए कुछ मूल्य का हो. किंतु क्या यह भी अहंकार की पुष्टि के लिए
नहीं होगा ? उनका कृत्य तो तभी होगा न जब वे होंगे, और जब तक वे हैं, तब तक
परमात्मा उनके द्वारा कार्य कैसे करेगा. उनका होना ही तो सबसे बड़ी बाधा है. तब तो
अच्छा है वे कुछ न करें, जो वह कराए हो जाने दें, न कराए तो भी कोई बात नहीं ! यही
ठीक रहेगा. कर–कर के भी तो कुछ हासिल नहीं होता, करने से अहंकार की पुष्टि होती है
अथवा तो हीन भावना बढती है, अभिमान या ग्लानि.. सेवा का जो भी कार्य बन पड़े, वही
करना है और देह तथा परिवार को चलाने के लिए आवश्यक कार्य करने हैं. सहज प्राप्त हुए
गुणों का प्रयोग करते हुए लिखने का कार्य करना है. इसके अतिरिक्त क्या करना है ?
व्यर्थ ही कर्मों के बंधन बाँधने से कोई लाभ नहीं !
पहले इस लायक तो बनें कि परमात्मा उन्हें चुने,
परमात्मा के मुकुट में हीरे लगाए जाते हैं पत्थर नहीं, स्वयं को तराशना है होश की
हथौड़ी से, सारे नुकीले कोने मिटाने हैं, एक सरलता, सहजता और सुकुमारता लानी है
भीतर, किसी को चुभे नहीं ऐसा व्यक्तित्त्व बनाना है, तो शेष अपने आप ही हो जायेगा, होश सबसे बड़ा साधन है. हर क्षण सजग रहना
है. उसी की स्मृति में रहकर सभी काम उसी को समर्पित करने हैं. अपने सारे अनुभव और
साधना उसी के चरणों में डालकर खाली हो जाना है. न जगत के न ही मन के खेल अब लुभा
सकें. होश की एक तलवार सदा अपने ऊपर महसूस करनी है. बेहोश व्यक्ति ही पुनः-पुनः
भ्रमित होता है. जागा हुआ व्यक्ति भी यदि गड्ढे में गिरे तो उसे सोया हुआ ही मानना
होगा. बहुत घट गया बेहोशी में अब और नहीं. आज से ही, इस क्षण से ही एक भी पल
व्यर्थ के चिन्तन, व्यर्थ के कार्यों और व्यर्थ को कल्पनाओं में नहीं लगाना है.
प्रकृति उन्हें शुद्ध करना चाहती है. देह के भीतर जो भी मल हो वह उसे निकालना
चाहती है. मन भी विकार ग्रस्त रहना नहीं चाहता. परमात्मा उन्हें अपने जैसा पवित्र
करना चाहता है. आहार में शुद्धता हो तो भीतर भी शुद्धि रहेगी. उन्हें अपनी देह का सम्मान
करना है. मन व बुद्धि का आदर करना है. इन्हें पावन बनाना है. आत्मा के मूल
संस्कारों को इनके द्वारा अनुभूत करना है. शांति का अनुभव मन में ही होगा. ज्ञान
का अनुभव बुद्धि से, पवित्रता का अनुभव देह से होगा. शक्ति का अनुभव भी मन आदि
साधनों से होगा. उन्हें स्वयं को इस जगत के योग्य बनाना है.
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