Monday, September 1, 2014

रॉबिन कुक की किताब - टॉक्सिन


 नये वर्ष का दूसरा दिन, सारा दिन घर की सफाई में बीता. शाम को वे टहलने गये, जबकि जून को हल्का जुकाम है, दफ्तर में काम भी ज्यादा था, इसी हफ्ते उन्हें टूर पर भी जाना है. वे कल ही घर से वापस आये हैं, पर यह सुंदर ब्राउन डायरी उसे जून ने आज लाकर दी है. नन्हा पढ़ाई में व्यस्त है, बीच-बीच में पत्रिकाएँ पढ़ने लगता है. आज सुबह फोन से अन्य सभी से बात हुई. दीदी का फोन शायद कल आये. छोटी बहन बेहद उदास थी, उसे बेटियों की बहुत याद आ रही थी, जो उसकी फील्ड ड्यूटी के कारण पिछले कुछ दिनों से दादी के पास हैं. माँ, पिता और बच्चे तीनों अलग-अलग शहरों में रहने को विवश हैं, परिस्थितियाँ कुछ ऐसी हैं कि वे साथ नहीं रह सकते. माँ की तबियत फिर ज्यादा खराब हो गयी थी, वे दवा लेना बंद कर देती हैं फिर तकलीफ उठाती हैं. वृद्धावस्था इन्सान को लाचार बना देती है. पड़ोसिन को उसका लाया हल्के धानी रंग का चिकन का सूट पसंद आया, जो उसने मंगाया था. कल बंगाली सखी ने उनके दोपहर के खाने का और उड़िया सखी ने रात के खाने का इंतजाम किया था, थकान भी बहुत थी, सो अच्छा लगा. एक अन्य सखी से फोन पर बात हुई. इस बार उसने कुछ आध्यात्मिक पुस्तकें भी खरीदीं. एक पुस्तक ‘रेकी’ पर भी ली जो ट्रेन में ही पढ़ ली थी, प्रयोग में लाने हेतु कई बातें हैं, ध्यान की विधि भी है. परसों रात वे ट्रेन में थे जब पिछला साल गुजरा और नये वर्ष ने पदार्पण किया. पर इस बार कुछ विशेष नहीं लगा. अब पहले की तरह ख़ुशी के मौके तलाशने का मन नहीं होता, हर पल, हर दिन एक सा लगता है. यह रोजमर्रा की जिन्दगी, यह दिन-रात, महीने-वर्ष का बीतना तो चलता ही रहता है. असली चीज तो इसके पीछे है. परमेश्वर से उनका नाता.. जो सदा एक सा है !

‘मानव के पास विचार, भाव और विवेक का बल है लेकिन वह उसका उपयोग नहीं करता. अपने बाहरी  व्यक्तित्व को संवारने का यत्न तो करता है पर मानसिक, बौद्धिक व आत्म व्यक्तित्व को निखारने का प्रयास नहीं करता, सो आडम्बर और पाखंडपूर्ण जीवन जीता है’. उसे लगा, सचमुच भीतर से वे जितन सत्य के निकट होंगे, यथार्थ का सामना करेंगे, वास्तविकता को पहचानेंगे, उतना ही आंतरिक व्यक्तित्व व्यक्त होगा. अपने आदर्शों को मूर्त रूप देना होगा तथा उसे जीवन में उतारना होगा.

जनवरी की ठंड का अहसास आज पहली बार हुआ जब दोपहर होने से पहले हल्की बूंदाबांदी शुरू हो गयी पर बाद में धूप निकल आई. सुबह वे पांच बजे उठे, रोजमर्रा के कामों को करते-करते सुबह गुजरी. सफाई का कुछ काम भी जारी रहा, कुछ अब भी शेष है. दोपहर को साड़ी में पीको किया, फाल लगाई. इतवार को क्लब मीट में पहनने के लिए नई पोशाक तैयार है. कल शाम उद्घाटन था, वे नहीं गये, आज भी शायद ही जाएँ. शाम को ठंड में ठिठुरते हुए अलाव के पास लोगों की भीड़ देखने जाने का मन अब नहीं होता. आज सुबह बहन से बात हुई, वह दोनों बच्चों और सास के साथ हिमाचल आ गयी है. उन्होंने उससे कहा है उसकी छोटी बिटिया को वे अपने साथ रख सकते हैं जब तक उसकी सर्विस का अनुबंध काल खत्म नहीं होता, पर उसे नहीं लगता यह सम्भव होगा. वे तीनों बहुत निर्भर हैं एक-दूसरे पर सो अलग-अलग रहना उनके लिए सजा न बन जाये. नन्हा फिजिक्स के गृहकार्य में लगा हुआ है. इस यात्रा में उसने रॉबिन कुक की किताब toxin उपहार मिले पैसों से खरीदी. बनारस में काफी घूमा और पतंगें उडायीं. सास-ससुर का स्वास्थ्य भी ठीक ही लगा. अगले एकाध महीने में वे लोग नये मकान में चले जायेंगे, जीवन में परिवर्तन होगा जो अच्छा ही है. इस छोटी सी यात्रा ने उनके मनों में भी नया जोश व उत्साह भर दिया है. यहाँ तक की नैनी भी काम मन लगाकर कर रही है. आज सम्भवतः वे कुछ देर बगीचे में भी टहल सकें, यदि जून समय पर घर आ जाएँ. उन्हें कल अपग्रेडेशन का लेटर मिला है, इतवार को उन्हें दिल्ली जाना है.

सुबह उठे तो ठंड बहुत थी, फिर समाचारों में सुना, पूरे उत्तर भारत में शीत लहर का प्रकोप है. शिमला में हिमपात हुआ है. बहन का ख्याल हो आया, पर इस समय धूप निकल आयी है. पंछियों की आवाजें रह रहकर आ रही हैं जो धूप का स्वागत करती प्रतीत होती हैं. आज ‘जागरण’ में उच्च विचार सुने जो प्रेरणादायक होने के साथ-साथ दर्पण का कार्य भी कर रहे थे. उसे भी लगा, वे छद्मवेश बनाये रखते हैं. उनकी कथनी व करनी के बीच की खाई निरंतर गहरी होती जाती है. मानव होने के नाते उनके कुछ कर्तव्य हैं कुछ उत्तरदायित्व हैं जो वे सुविधा होने पर पूरा करते हैं, कभी असुविधा का बहाना बना टालते रहते हैं. इस समय उसके मन में कई विचार एक साथ आ रहे हैं सो गड्ड-मड्ड हो रहे हैं, सर्वप्रथम अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक होते हुए उसे एक्सरसाइज कर लेनी चाहिए तब तक मन भी व्यवस्थित हो चुका होगा.   




1 comment:

  1. परिवार की बातें बहुत अच्छी लगती हैं. ख़ुद परिवार से अलग हूँ कई बरसों से, इसलिये उसकी बातों में अपने मन की अभिव्यक्ति पाता हूँ... ख़ासकर माँ की बात ने मुझे माँ की याद दिला दी.

    "रेकी" और "टैरो कार्ड्स" - इन दो विषयों पर पुस्तकें बहुत देखीं, पर कभी पढने का सन्योग नहीं हो पाया. हाँ रॉबिन कुक की "कोमा" पढी थी करीब तीस-पैंतीस साल पहले. अब तो भूल भी गया.

    और हाँ एक बार फिर से नया साल आया इस पोस्ट में!! भले ही बिना किसी शोर-शराबे के बीत गया. शायद अब तक पढे तमाम पोस्ट्स में नया साल ही एक ऐसा त्यौहार रहा है जिसका ज़िक्र कई बार आया है!! (जागरण, बाबा जी और उनका नाम भूल गया - उनके बाद) है ना! :)

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