Thursday, September 18, 2014

सद्भावना यात्रा


आज की सुबह बहुत व्यस्त रही, सुबह वे रोज की तरह उठे, नन्हा और जून स्कूल और ऑफिस गये, इसी बीच उसने कुछ देर बगीचे में काम किया. सूखे फूलों को काटा फिर बड़े भाई से फोन पर बात की. उन्हें दिल्ली में किसी प्रकाशक का पता मालूम करने को कहा जो हिंदी कविताओं की पुस्तक छापता हो. उसकी पुस्तक आकार लेती प्रतीत हो रही है. जून ने कल रिपोर्ट लिखवाई थी, प्लम्बर आया उसके पहले गैरेज में स्थित जंक्शन बॉक्स देखने व सीमेंट से उसे ठीक करने दो अलग-अलग समूह आये. उनमें से एक व्यक्ति ने आंवले मांगे, उसने अपने लिए भी आंवले तुड़वाये. सुबह दो सखियों से बात की, तीन कवितायें टाइप कीं, यही सब करते कराते जून के आने का वक्त हो रहा है. प्रवचन में मन नहीं लगा न पाठ में, जब आस-पास इतना कुछ चल रहा हो तो मन जिसे एक मौका चाहिए, फुर्र से उड़ जाता है. कल दोपहर को भी भाई का फोन आया था, माँ के जाने के बाद उनमें थोड़ा बदलाव तो आया लगता है, शायद उन सभी पर किसी न किसी रूप में असर डाला है इस होनी ने, वह जो इतने दिनों से पुस्तक छपवाने का स्वप्न भर देखा करती थी, रोज इस पर काम कर रही है. समय बहुत कम है, कौन जाने कोई कब इस जहां से चला जाये वक्त रहते यदि नहीं चेते तो सिवा पछतावे के और कुछ हाथ नहीं आएगा.

आज नन्हे का हिंदी का इम्तहान है, उसने कल शाम को आधे दोहे के अर्थ के अलावा कुछ नहीं पूछा, अब वह आत्मनिर्भर हो गया है. कल जून ने भी पिता से बात की. सभी अपनी तरह से उसे समझाना चाहते हैं. पिता के अनुसार जिस तरह कोई गिरे हुए दूध का अफ़सोस नहीं करता वैसे ही किसी के जाने का भी दुःख नहीं करना चाहिए. भाभी के अनुसार उसे अपना दुःख सभी के साथ बांटना चाहिए. भाई ने कहा, वक्त लगेगा पर धीरे-धीरे सब ठीक हो जायेगा. इस क्षण उसके मन में लेशमात्र भी दुःख नहीं है, लेकिन वे कारण धीरे-धीरे स्पष्ट हो रहे हैं जिनके कारण इतने दिनों तक वे परेशान थे. सर्वप्रथम तो अपराध भावना कि तेहरवीं पर वे जा नहीं पाए, दूसरे घरवालों को अपनी बात ठीक से समझा न पाना और तीसरा और सबसे बड़ा कारण तो उस स्रोत का न रहना जिससे वह जुड़ी थी और वे सारे दृश्य तथा वेदना, जो अंदर तक महसूस की.

आज नन्हे का आखिरी इम्तहान है. धूप निकली है, परसों रात की आँधी-वर्षा के बाद मौसम कुछ ठंडा अवश्य हो गया है. कल दोपहर भर वह कवितायें टाइप करती रही अब पूरी सौ हो चुकी हैं. शाम को जून ने कुछेक को प्रिंट भी कर दिया है. इसी हफ्ते उन्हें जाना भी है. उसका मन सभी के प्रति स्नेह से भरा हुआ है, माँ के प्रति जो उसका प्रेम था वह कई धाराओं में बंट गया लगता है. एकाएक ही सभी भाभियाँ बहुत प्रिय लगने लगी हैं और उनके परिवारों के प्रति सदा शुभकामनायें प्रस्फुटित होती रहती हैं, इस बार की अपनी यात्रा को ‘सद्भावना यात्रा’ का नाम देना उचित रहेगा. कल रात भी उसने सपने में सभी को देखा. माँ को भी देखा, पर सुखद अनुभूति थी. वे सभी यहाँ आए हुए हैं और वे उन्हें क्लब ले गये हैं. कल नन्हे का गणित का पेपर बहुत अच्छा नहीं हुआ लेकिन वह जल्दी ही सामान्य हो गया, उसका देर तक परेशान रहना उन्हें भी अच्छा नहीं लगता.  


कल सुबह व्यस्तता के कारण डायरी नहीं खोल पाई, लेकिन पिछले एक महीने की व्यस्तता रंग लायी है और आज सुबह ही उसकी किताब की दो पांडुलिपियाँ पूरी तरह से तैयार हो गयी हैं, और जब इतना कार्य जून और नन्हे की मदद से व ईश्वरीय प्रेरणा से सम्पन्न हो गया है तो भविष्य भी उज्ज्वल होगा. परसों उन्हें जाना है, अभी पैकिंग नहीं हुई है. इस बार का जाना हर बार से थोड़ा अलग है, कल छोटे भाई का भावपूर्ण पत्र आया जिसे पढ़कर आँखें बरस पड़ीं, जून ने उसे संभाला, यह ऐसा दुःख है जिसको दूर होने में शायद सारी उम्र लग जाएगी. उस दिन जब वह माँ कविता पर काम कर रही थी, कैसे गैस पर रखे चावलों को जलने से एक आवाज ने बचा लिया था. उसे यह एक चमत्कार ही लगा था, वह किचन में चावल रखकर भूल गयी थी, अचानक बर्तन गिरने की आवाज हुई, दौड़ कर गयी तो वहाँ कोई नहीं था, खिड़की भी बंद थी, किसी पक्षी या बिल्ली के आने की कोई जगह नहीं थी, यहाँ तक कि कोई बर्तन भी गिरा हुआ नहीं था, फिर वह आवाज...उस क्षण उसने माँ को अपने पास ही महसूस किया था. इसी तरह वे सब किसी न किसी रूप में उनकी स्मृति को उनकी उपस्थिति को हमेशा अपने आस-पास पाते हैं, पाते रहेंगे. पिछली रात तेज गर्जन-तर्जन के साथ वर्षा हुई, इस वक्त थमी है. नन्हा अपने मित्र के यहाँ गया है. आज सुबह ‘जागरण’ में प्रेरणादायक वचन सुने, कुछ देर ध्यान भी किया. संगीत का अभ्यास पिछले कई हफ्तों से छूट गया है. उसने सोचा है, वापस आने पर पुनः शुरू करेगी, 

1 comment:

  1. कविता की किताब का शकल अख़्तियार करना और घर-परिवार में रिश्तों की नई तलाश... एक अजीब कशमकश का दौर है यह. कुछ मलाल तो हर किसी के दिल में रह ही जाते हैं. कुछ के लिये अफसोस भी रहता है. लेकिन यह भी सच है कि अगर परिस्थितियाँ अनुकूल होतीं तो वो सब न होता जो हुआ.. जिसका मलाल रहा. और ख़ुद को कोसने से बेहतर है हरि इच्छा मानकर ख़ुद को समझा लेना!

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