सत्-चित्त-आनन्द और सत-सिरी-अकाल एक ही
सत्ता की ओर संकेत करते हैं, उस आनन्द को पाने के लिए ध्यान में उतरना होगा,
क्योंकि इस आनन्द को कोई भौतिक इन्द्रियों से महसूस नहीं कर सकता, उसे तो
निर्विकार, निर्विकल्प होकर ही अनुभव किया जा सकता है. आज जून ने उसकी किताब के
प्रकाशक शर्मा जी से बात की, उन्हें किताब मिल गयी है, पर अभी तक फ्लापी नहीं देखी
है. अब उन्हें धैर्य रखना होगा, उनका कार्य समाप्त हो गया है, अब शेष कार्य
प्रकाशक का है. आज कोई नया स्वीपर आया है, इसके काम में सुघड़ता है. कल उन्होंने ‘साहित्य
अमृत’ के संपादक को वार्षिक चंदा भेजा. कल एक पुरानी डायरी में लिखी कई कविताओं को
पुनः पढ़ा तो कई स्थानों पर नये शब्द सूझ गये, उसकी साहित्य यात्रा का आरम्भ
धीरे-धीरे हो रहा है. नन्हा आज स्कूल गया है, आज सुबह जल्दी उठाया था उसे ताकि
आराम से तैयार हो सके. जून कल शाम को थोड़े
खफा हो गये लगते थे, ‘स्क्वैश’ की सब्जी में नमक बहुत ही कम था, नन्हा और उसने खा ली
पर वह नहीं खा पाए. आजकल वह उनका विशेष ख्याल नहीं रख रही है, अभी-अभी ‘ध्यान’ पर
लिखी एक पुस्तक में पढ़ा, दूसरों की भावनाओं का सदा ध्यान रखना चाहिए, स्वयं को महत्व
न देकर सामने वाले की ख़ुशी का ध्यान रखना चाहिए, मन जब निज स्वार्थ से ऊपर उठ जायेगा,
जब अपनी ख़ुशी ही सर्वोपरि नहीं होगी तभी ध्यान सधेगा, और वास्तव में वही असली
स्वार्थ सिद्धि होगी, अर्थात दूसरों का ख्याल रखकर कोई अपना ही ख्याल रख रहा होता
है. घोष वाली वह किताब काफी पढ़ ली है, ‘डॉली’ उसकी एक पात्रा भी ध्यान करती है.
दिल्ली की जनता CNG बसों के पर्याप्त मात्र में न होने के कारण बेहाल है, हिंसा पर
उतर आए हैं लोग, उसे भतीजी का ध्यान हो आया, उसे स्कूल जाने में जरूर दिक्कत हुई
होगी इस अव्यवस्था के कारण. अभी उसे दो पत्र और लिखने हैं, समय मिलते ही लिखेगी.
मानक.आज सुबह जो सुना था वही इस
वक्त उसके मन में घुमड़ रहा है. सत्य की राह पर चलने वाले को कदम-कदम पर ध्यान रखना
पड़ता है, मन को कुसंग से बचाना है, क्रोध से भी, न जाने कितने जन्मों के संस्कार,
कर्म बीजों के रूप में जो मन में पड़े हुए
हैं, जरा सा प्रोत्साहन पाते ही विकसित हो जाते हैं. हर देखे, सुने का चित्र मन पर
अंकित हो जाता है, इसलिए अनावश्यक देखना भी नहीं है, सुनना भी नहीं है. जाने
अनजाने वे कोई जो भी इच्छा करता है वह समय पाकर किसी न किसी रूप में जरुर पूरी
होती है. दुःख को मिटाते-मिटाते और सुख की चाह करते-करते जीवन बीत जाता है, मिथ्या
की सत्यता स्पष्ट नहीं होती, तपन कम नहीं होती. ज्ञान रूपी सूर्य को पीठ देकर छाया
के पीछे दौड़ते हैं. जीवन में क्रम या नियम तो होना ही चाहिए, इससे ही दक्षता आती
है, दक्षता से ही खुद में श्रद्धा होती है, और श्रद्धा से ही खुद को पा सकते हैं.
स्वयं को कोसना स्वभाव न बन जाये, इसका अर्थ होगा अपने से तुच्छ को ज्यादा महत्व
दे दिया. सुखों के पीछे की गयी अंधी दौड़ पतन के मार्ग पर ही ले जाती है. The glass
palace में एक-एक कर सभी मुख्य पात्र मृत्यु के ग्रास बनते चले जाते हैं, उनका भी एक
दिन यही हश्र होगा, उससे पूर्व ही सचेत होना है. जिन वस्तुओं के पा लेने पर वे
गर्व से फूले नहीं समाते वे उस वक्त काम नहीं आएँगी जब जीवन की अंतिम यात्रा पर जा
रहे होंगे. वास्तविक सुख कहाँ है, उसकी खोज करनी है अथवा परम सत्य की खोज करनी है.
यह संसार और सारे संबंध सभी वस्तुएं सापेक्ष हैं जो प्रतिक्षण बदलती हैं लेकिन कुछ
तो इन सबके पीछे है जो मानक है जिसको मानक मानकर वे उसके जैसा होना चाहते हैं. वह
आगे बढ़ते तो हैं, वहाँ तक पहुंच नहीं पाते पर प्रयत्न तो यही रहता है. इस एक परम
सत्ता, परम सत्य की खोज में ही वास्तविक आनन्द है, शेष सारे कार्य उनके उस एक
उद्देश्य की पूर्ति के निमित्त ही होने चाहिए, उनका व्यवहार, उनका संग, उनकी वाणी
इस बात के परिचायक हों कि वे उस पथ के यात्री हैं !
पिछले दो दिन डायरी नहीं
खोली, और आज भी सुबह नहीं लिख पाई, ढेर सारे कपड़े प्रेस करने थे, सो बाकी सारे
कार्य तो किये बीएस यही रह गया, क्योनी डायरी लिखना यानि खुद के करीब आना, और खुद
के करीब आना एक खस मन स्थिति में ही सम्भव है. आज गोयनका जी आये थे, उनकी बताई
विधि से ध्यान में देर तक बैठ पायी. बाबाजी ने भी इन्द्रियों को मन में, मन को
बुद्धि में, बुद्धि को स्व में स्थित कर ध्यानस्थ होने की विधि बताई. कल शाम वे 'ग्लैडिएटर' देखने गये, वापस आये तो जैसे फिल्म का प्रभाव उनके मन, वाणी पर पड़ चुका
था, वे एक-दूसरे से क्रोध में बात कर रहे थे. सुबह तक उसे यह असर महसूस हुआ. कल
दोपहर को उसे पूसी के बच्चों की आवाजें आयीं, परसों उन्होंने अनुमान लगाया था की
पूसी माँ बनने ही वाली है. कल शाम को दूर से उसे देखा, छत के निचे बनी पर छत्ती पर
वह बैठी थी. कल रात में स्वप्न में एक मार्जारी को देखा, जो उन्हें पंजों से पकड़
क्र बुला रही थी, बिलकुल वैसे ही जैसे इन्सान बुलाते हैं. आज दोपहर उसने नैनी के
लिए उसी के लाये कपड़े का ब्लाउज सिला कपड़ा नया तो नहीं था, पर सही हालत में था.
हाथ का काम वह खुद करेगी. पूरे दो घंटे लगाये पर पता नहीं कितना सही बना है. अभी
अभी एक सखी को फोन किया तो पता चला परसों वे डिब्रूगढ़ गये थे तो उनके लिए तरबूज
लाये थे, जून से ड्राइवर को भेजकर मंगवाने के लिए कहा है. सवा तीन हो गये हैं,
नन्हा अभी तक नहीं आया है, उसका गला बभी सुख रहा है, दोपहर जून के जाने के बाद से
चाय या पानी कुछ नहीं पिया है और अब एक गिलास ठंडा पानी पीने का वक्त ही रह गया
है, थोड़ी ही देर में जून भी आते होंगे और उनके दिन का तीसरा भाग शुरू हो जायेगा.
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