Thursday, June 26, 2014

शाकाहारी भोजन



दिसम्बर माह का प्रारम्भ हुए तीन दिन हो गये हैं पर न इन दिनों न ही पिछले कितने दिनों उसे लिखने का समय मिला, उस तरह, जैसे वह चाहती है. इधर-उधर के कार्यों में ही समय गुजरता गया. स्कूल में अभ्यस्त हो गयी है कहना ठीक नहीं होगा क्योंकि अभी भी क्लास वन के बच्चों को पढ़ाने में कुशल नहीं हो पाई है, हरेक बच्चा बोर्ड पर लिखा हुआ अपनी कापी में लिख ले इसकी जाँच करने में कुछ न कुछ छूट जाता है, एक को ज्यादा ध्यान दे तो अन्य ध्यान बंटाते हैं, खास-तौर पर पिछले दो दिनों से गला खराब है, तेज आवाज में बोलना अच्छा नहीं लगता. कुछ बच्चे ज्यादा ही शरारती हैं, कोर्स पूरा करना है, यही सोच कर वह और अन्य अध्यापिकाएं पढ़ाने जाती हैं, पर उन्हें समझाने सुधारने का समय नहीं मिल परता. आज भी घर लायी है स्कूल का काम, क्लास फाइव में सब ठीक चल रहा है. इसी महीने उन्हें दक्षिण-पश्चिम भारत की यात्रा पर भी निकलना है. ऊर्जा संरक्षण पर भी कुछ लिख कर देना है. आज अपेक्षाकृत गला ठीक है सो शाम को वे घूमने जायेंगे, व्यायाम की आदत छूटती जा रही है. इस बार यात्रा में मुम्बई से योगासन करने के लिए विशेष ड्रेस लेगी. पिछले कई दिनों से खत न लिखे न ही कोई पत्र आया. अभी कुछ देर में नन्हा स्कूल से आ जायेगा और फिर जून भी, उनकी शाम का शुभारम्भ हो जायेगा, कुछ देर बागवानी, डिनर की तयारी, अध्ययन और फिर टीवी. कल दो वर्ष पूर्व की डायरी में एक कविता पढ़ी, मन को छू गयी, अपनी ही लिखी एक कविता !

फिर एक अन्तराल, आज शाम उन्हें एक पार्टी में जाना है, जून के दफ्तर के एक उच्च अधिकारी के यहाँ, उसने सुबह से ही तैयारी शुरू कर दी है. उन्होंने पूरे विभाग को बुलाया है. वे भी उनकी तरह शाकाहारी हैं, सो यकीनन उसे वहाँ भोजन पसंद आएगा, वरना तो अक्सर उसे गंध के कारण बहुत जगह दिक्कत होती है. लौटने में जरूर आधी रात हो जाएगी पर ऐसे में नींद कहाँ आती है. उसने आज सुबह भी ‘जागरण’ सुना था, आत्म चिन्तन ही असली दर्पण है जिसमें अपना वास्तविक रूप झलकता है. दूसरा कोई दर्पण दिखलाये तो अहं को चोट लगती है सो स्वयं को दर्पण खुद ही दिखाओ ऐसा सन्त कह रहे थे. मौन रहकर अपनी भावनाओं और विचारों को इतना प्रबल बनाया जा सकता है कि मन प्रसन्न रहे, क्योंकि प्रसन्नता में ही मधुरता है और मधुरता में ही मौन है. मौन में ही आत्म नियन्त्रण आता है. उसने सोचा कितना सही कहा है, आत्म नियन्त्रण रहे तो अहं भी सिर नहीं उठाएगा. मन अपनी हुकुमत चाहता है, अपनी कमियां देखना नहीं चाहता पर इसे समझाने में यदि कोई समर्थ नहीं है तो...क्रोध उपजेगा ही और क्रोधी मन विवेकहीन हो जाता है. छोटा मन स्वयं को ढकने के लिए कितने सरंजाम जुटता है पर बड़ा मन कुछ न कुछ देना चाहता है. देने की स्थिति में ही मन सुखी रह सकता है मांगने की स्थिति में तो सदा शंकित रहेगा. सो मन का मौन बड़ा तप है, मौन ही इन्सान को बनता है, उसकी सुबहों और संध्याओं को सजाता है, इसी सोच-विचार में वह बाहर आई तो लगा दैवीय संगीत चारों ओर बिखरा हुआ है. वर्षा की बूँदों का संगीत, पंछियों और पत्तों का संगीत.. वैसा ही संगीत शायद भीतर भी छिपा हुआ है. मौन में वही संगीत अद्भुत शांति बनकर प्रकट होता है.







2 comments:

  1. स्कूल में उसकी बेचैनी देखकर अच्छा लग रहा है... इसलिये कि मैं बच्चों के पाले में हूँ. एक नया काम शुरू करने में इस प्रकार की मुश्किलें आती हैं और फिर अपने ढंग से काम करना और एक अन्य व्यवस्था में बँधकर काम करना, बिल्कुल अलग विधा है. जितनी जल्दी तालमेल बैठ जाए अच्छा है.

    शाकाहारी मैं भी हूँ, लेकिन सिर्फ खाने के मामले में. गन्ध या छुआछूत की समस्या नहीं. मेरी प्लेट में ग़लती से आ जाये तोप उसे किनारे करके बाक़ी का खाना मैं खा सकता हूँ! हाँ, यह परहेज पके हुए माँसाहारी भोजन से है, कच्चे से मैं कोसों दूर रहता हूँ!

    जागरण पर जो बात कही गयी, उसपर बहुत लम्बी चर्चा की जा सकती है.. इसलिये फ़िलहाल उनसे थोड़ा बहुत सहमत होते हुए, अपनी बात ख़तम करता हूँ!!

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  2. स्वागत व आभार इस सार्थक टिप्पणी के लिए !

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