Monday, January 2, 2017

तरह-तरह के ध्यान


कल कुछ नहीं लिखा, शाम को क्लब गयी थी. लेडीज क्लब की मीटिंग थी. एक सदस्या का विदाई समारोह था, उसने उनके लिए लिखी कविता पढ़ी, उन्हें शायद उम्मीद नहीं थी. लौटकर पद्म साधना की, जैसे आजकल वे रोज करते हैं. आज भी बदली है आकाश में. पिताजी बाहर बरामदे में बैठकर अखबार पढ़ रहे हैं, माँ कमरे में अपनी चिर-परिचित मुद्रा में कुर्सी पर बैठी हैं. कल वे उनका जन्मदिन मनाने वाले हैं, उसने उनके लिए एक कविता लिखी. शाम को नन्हे के बचपन के फोटो चुनने हैं, वे उसके जन्मदिन पर उसे एक कोलाज बनाकर भेजेंगे. आज का ध्यान भी अच्छा था, जब कोई विचार नहीं है और इच्छा नहीं है तब क्या कोई कह सकता है कि ‘वह है’ ? दो श्वासों के बीच जो अन्तराल है, वे वहाँ भी नहीं होते, दो विचारों के बीच भी वे नहीं होते. आकाश में बादलों की तरह विचार आते और चले जाते हैं, उन पर कोई वश भी नहीं है. आत्मा में कोई क्रिया ही नहीं है, क्रिया करने की शक्ति है, जानने की शक्ति है और मानने की शक्ति है, लेकिन वे शक्तिमान हैं, शक्ति नहीं..अपने शुद्ध रूप का एक बार ज्ञान हो जाये तो चाहे वे शक्ति का कितना ही उपयोग करें..गलती तब होती है जब वे स्वयं को शक्ति ही मान लेते हैं और चुक जाते हैं...

दीदी को माँ के लिए लिखी कविता भेजी थी, उनकी यह अच्छी आदत है, फौरन जवाब देती हैं. आज का ध्यान भी अच्छा था. शरीर से बाहर वे कहाँ हैं और देह के भीतर वे कहाँ हैं, इसका अनुभव करना था. वे सब जगह हैं और कहीं भी नहीं है. देह से जब तक तादात्म्य रहता है, वे बंधन महसूस करते हैं, शरीर से जब तादात्म्य टूट जाता है तब वे पहली बार मुक्ति का अनुभव करते हैं..और मुक्ति ही आनंद है. उस आनन्द में किसी को अपना भागीदार बनाने के लिए फिर वे परमात्मा की भक्ति करते हैं, प्रेम बांटते हैं और सारा जगत उन्हें अपना ही रूप नजर आता है. आज छोटी बुआ पर संस्मरण लिखा.

कल जो कविता उसने ब्लॉग पर डाली थी. ध्यान के अनुभव के बाद लिखी थी और जो ध्यान नहीं करते, साधना पथ पर नहीं हैं, उन्हें समझ में नहीं आएगी. आज का ध्यान भी अनूठा था. सभी कुछ ब्रह्म है, इसका अनुभव करना था, पदार्थ का विश्लेषण करते जाएँ तो ऊर्जा मिलती है और ऊर्जा के भी पार चेतना है, जड़ अथवा चेतन सभी के मूल में एक ही तत्व है ! आज सुबह से वर्षा की झड़ी लगी है. शनिवार है सो भोजन में बेसन की कढ़ी बन रही है.

आज ध्यान में विचार शून्यता की अनुभव किया. विचार ही सीमा है. विचार से परे जहाँ केवल चैतन्य है, वहाँ सब एक है. सच्चा संवाद मौन में ही होता है. जब दो मौन मिलते हैं तब एकात्मकता का अनुभव होता है. विचारों में एकता कभी सम्भव नहीं है. मन में जो दिन-रात चटर-पटर चलती रहती है वह ऊर्जा को व्यर्थ नष्ट करती है. वे कभी भी मौन का अनुभव नहीं करते. नींद में लगातार भीतर चलता रहता है एक प्रवाह..उसे जो प्रतीक्षा थी कि विचारों वाली कविता पर कुछ लोग कुछ कहेंगे वह कितनी मूर्खता थी. उस कविता पर टिप्पणी तो मौन रहकर ही की जा सकती है. उनके भीतर मान पाने की इच्छा भी एक विचार ही है और पाकर भीतर जो प्रसन्नता होती है वह भी एक विचार ही है अथवा तो एक संवेदना है जो उन्हें सुखद मालूम पडती है. सुखद संवेदना के प्रति वे राग जगाते हैं, फिर उन्हें बार-बार उस संवेदना की ललक उठती है, जब वह नहीं मिलती तो भीतर दुखद संवेदना जगती है. जिसके प्रति वे द्वेष जगाते हैं, वह भी उन्हें नहीं भाता तो और द्वेष जगाते हैं और इस चक्र में फंस जाते हैं. सारा खेल संवेदनाओं का है. इनका एक नशा होता है. यदि किसी संवेदना को साक्षी भाव से देखें तो कुछ ही देर में नष्ट हो जाती है, वे पुनः पहले की तरह हो जाते हैं.   


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