Thursday, February 25, 2016

संस्कारों के बीज


फिर एक अन्तराल ! नये वर्ष का चौथा महीना बीतने को है, कितने ही पल हाथ से गुजरते जा रहे हैं, कुछ खट्टे कुछ मीठे, वह साक्षी है उन सभी की. सभी के प्रति सम्मान का भाव सदा मन में रहता है पर कभी-कभी वाणी कठोर हो जाती है, पूर्व के संस्कार कभी-कभी प्रकट हो जाते हैं. उनकी भावनाएं चाहे शुद्ध हों पर कर्म जब तक उनकी साक्षी नहीं देते तब तक वे अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकते. आज सुबह इतने वर्षों में पहली बार स्वीपर को भी उसके क्रोध का प्रसाद मिला. चाहे उनके क्रोध करने का कारण कितना भी सही क्यों न हो पर क्रोध सदा करने वाले को तथा जिस पर किया गया हो उसे, दोनों को जलाता है, क्योंकि क्रोध में वे द्वैत का शिकार होते हैं. क्रोध क्षणिक पागलपन ही है, वही बात जो वे क्रोध में कह रहे हैं, शांत भाव से भी तो कह सकते हैं. क्रोध के बाद सिवाय पछतावे के कुछ भी हाथ नहीं आता. उसके भीतर अभी भी कितनी नकारात्मक भावनाएं भरी हैं. इतने वर्षों का ध्यान भी उन्हें मिटा नहीं पाया, बीज रूप में वे संस्कार पड़े हैं जो मौका मिलते ही पनप उठते हैं, लेकिन गुरू का ज्ञान तत्क्षण हाजिर हो जाता है और भीतर प्रतिक्रमण होने लगता है, पुनः हृदय पूर्ववत शांत हो जाता है. लेकिन जहाँ वे शब्द गये हैं वहाँ तो पीड़ा पहुँच ही चुकी है, दूसरे की गलती होने पर भी उसे पीड़ा पहुँचाने का उन्हें कोई हक नहीं बनता, उसमें उनकी ही हार है, स्वयं के लिए ही उन्हें शांत रहना सीखना होगा.


सुबह पांच बजने से पूर्व उठी, सद्विचारों को सुना. क्रिया आदि की. भीतर झाँका तो पाया सम्मान पाने की, अपने लिखे लेख पर कुछ प्रतिक्रिया सुनने की आकांक्षा भीतर बनी हुई है. उसका लिखने किसी अन्य के लिए महत्वपूर्ण क्यों हो ? किसी को क्या पड़ी है कि पहले तो वह पढ़े फिर उस पर अपनी प्रतिक्रिया भी दे. यदि वह लिखती है तो इसलिए कि उसे उसमें सुख मिलता है, बस वही उसका प्राप्य होना चाहिए. ईश्वर ने उसे यश का भागी बनाकर अहंकार से भरने के लिए तो इस संसार में नहीं भेजा है. उसके जीवन का उद्देश्य परम सत्य को पाना ही तो है, उसमें बाधक हैं यश, सुख-सुविधाएँ, अति व्यस्तता. उसका जीवन तो कितना साधारण है, यहाँ एकांत है, समय है, साधना का उपयुक्त वातावरण है. ऐसा सहज, सरल, स्वाभाविक जीवन पाकर और क्या चाहिए. आत्मस्वरूप में स्थिति बनी रहे, बोध बना रहे, किसी को उसके कारण रंचमात्र भी पीड़ा न हो, उसके मन को भी कभी कोई दुःख स्पर्श न करे. सहज हों उसके सभी कार्य, उसके सभी संबंध भी सहज हों तभी तो भीतर सत्य प्रकट होगा. उसके लिए अनुकूल वातावरण भीतर बनाना है, कोई चाह नहीं, कोई कामना नहीं, कोई आकांक्षा नहीं, बस एक प्रतीक्षा ! कब आएगा वह, और एक अटल विश्वास कि वह परम भीतर प्रकटेगा अवश्य ! वह अस्तित्त्व, वह चिन्मय तत्व जो भीतर कभी नाद तो कभी प्रकाश रूप में दिखाई देता है, वह स्पष्ट हो उठेगा, पर उसके पूर्व धो डालना होगा सारा कलुष, धो डालनी होगी सारी आतुरता, सारा द्वेष, सारी असंवेदनशीलता, भरना होगा प्रेम से भीतर का वातायन !

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