आज दीदी के विवाह की सालगिरह है. उनसे बात की तो पता चला
पार्टी शाम को है, बड़ी बिटिया आएगी, जो उनके ही शहर में रहती है, बाकी बच्चे तो
समुद्र पार विदेशों में हैं. कल छोटी ननद के विवाह की रजत जयंती थी, बधाई दी तो
पता चला, वे लोग आगरा में थे. बड़ी ननद से भी भांजी के घर आने के बारे में हुई,
शायद उसे अच्छा न लगा हो, बच्चों के जीवन की हलचल से माता-पिता अछूते कैसे रह सकते
हैं. जीवन में कभी-कभी कठोर निर्णय भी लेने पड़ते हैं. परमात्मा की इस सृष्टि में
प्रतिपल विनाश भी घटता है. वे त्याग के महत्व को नहीं समझते तभी तो इतनी चिंता
घेरे रहती है. उसके द्वार पर खाली होकर ही जाया जा सकता है. वह इतना अपार है कि
उसे स्थान तो चाहिए. कल जो कविता ब्लॉग पर पोस्ट की थी, आज दो अन्य स्थानों पर
प्रकाशित हुई है. कितनी कविताएँ अभी उसके भीतर हैं व्यक्त होने की प्रतीक्षा
में...
आज सुबह कैसा स्वप्न देखा. एक बड़े से हॉल में
लोग बैठे हैं. वह एक मंच पर है, उसके हाथ में माइक है. कोई साधु आते हैं. लोग उनके
दर्शन करते हैं. बाद में उसे बोलने को कहते हैं. वह बोल रही है. शायद गुरूजी के
यहाँ आने की स्मृति ही स्वप्न बनकर प्रकट हुई है. कल वे बंगलूरू की एक और यात्रा
पर जा रहे हैं.
शाम के सवा चार बजे हैं. एक सप्ताह बाद वे घर
लौट आये हैं. इतने दिनों बाद अपने घर में, कमरे में बैठकर टीवी पर 'वैदिक चैनल'
में सुंदर वचनों को सुनने का अवसर मिला है. जून बाजार से सब्जियां व फल ले आये
हैं.
आज मौसम ज्यादा गर्म नहीं है. सुबह तो हवा में हल्की
ठंड भी थी. आज मृणाल ज्योति गयी, उसके पहले एक परिचिता के यहाँ, उसकी सासूजी का
श्राद्ध था, जब वे नहीं थे. वहीं पता चला स्कूल की प्रिंसिपल अस्वस्थ हैं और वाइस प्रिंसिपल
का पुत्र भी अस्पताल में है. स्कूल गयी तो दो अन्य वरिष्ठ टीचर भी किसी कारण वश नहीं
थे. स्कूल के संस्थापक मिले, कहने लगे, एक दिन तो सब कोई चले ही जायेंगे, कोई सदा
के लिए रहने वाला नहीं है. विशेष बच्चों का स्कूल चलाना इतना सरल कार्य नहीं है. क्लब
की सेक्रेटरी का फोन आया, शाम को मीटिंग है. इसलिए आज दोपहर को ही उसने योग के लिए
साधिकाओं को बुलाया है.
आज सुबह दस मिनट देर से उठी. रात को होश की
साधना करते-करते सोयी थी. जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति में खोयी आत्मा अपने सच्चे
स्वरूप को विस्मृत कर देती है और माया के जाल में फंस जाती है. साक्षी भाव टिक
नहीं पाता देर तक. भीतर के अहंकार की गंध ही बाहर क्रोध के रूप में प्रकट होती है.
जब तक भीतर अहंकार है तभी तक दुःख है. ईर्ष्या, द्वेष तथा अन्य विकार भी तभी तक
हैं. जब भीतर और बाहर सम हो जाएँ तब ही वे सुरक्षित हैं. परमात्मा साक्षी है, वह
अपने से भी निकट है. वही तो है भीतर. वह जैसे होकर भी नहीं है, पर सब कुछ है, वैसे
ही आत्मा शून्य भी है और पूर्ण भी. पूर्णता का अनुभव तभी हो सकता है जब शून्यता का
अनुभव हो जाता है. न होना जब स्वभाव का अंश हो जाता है, जब भीतर असंगता छा जाती
है. बहुत दिनों बाद ब्लॉग पर कुछ पोस्ट किया.
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (12-06-2019) को "इंसानियत का रंग " (चर्चा अंक- 3364) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार !
ReplyDelete