सुबह-सुबह ही वे चार जन इनोवा
से चुनार के लिए रवाना हुए. बनारस से चुनार के लिए कई रास्ते हैं पर उन्होंने वह
चुना जो पाइप के पुल को पार करके किले तक ले जाता है. शहर से बाहर निकलते ही खेतों
के मध्य से गुजरती हुई कार उन्हें मनमोहक दृश्य दिखाने लगी. आगे चलकर दुर्गा देवी
का मन्दिर आया फिर शीतला माता का. पहले वे गाँव के भूतपूर्व सरपंच के घर पर रुके,
आगे की यात्रा में वे साथ जाने वाले थे. उनके वृद्ध पिताजी बाहर ही बैठे थे. घर
पक्का था तथा बैठक में सोफा आदि पड़ा था. उनके द्वारा परोसे मालपुए ग्रहण किये तथा नगरो
बाँध की तरफ रवाना हुए. अब रास्ता रेतीला हो गया था. दोनों तरफ सूखी धरती और
पत्तों से विहीन वृक्ष नजर आ रहे थे. वे सिद्धनाथ की दरी पर पहुंचे जहाँ पत्थरों
की विशाल चट्टानों पर चढ़ते-उतरते मुख्य स्थान पर पहुँचे जहाँ गुफा में शिव का
मन्दिर है. बरसात में यहाँ झरना बहता है पर इस वक्त सब सूखा हुआ था. गर्मी बहुत थी
पर हवा चल रही थी. उन्होंने आधा घंटा वहाँ बिताया फिर स्वामी अड़गड़ानंद जी के आश्रम
की ओर रवाना हुए. छोटे-बड़े वृक्षों से घिरा यह आश्रम अपनी गौशाला और बड़े हॉल के कारण
प्रसिद्ध है. यहाँ हजारों की संख्या में एक साथ बैठने की व्यवस्था है. स्वामी जी
इस वक्त आश्रम में नहीं थे, उनकी पुस्तक ‘यथार्थ गीता' पढ़ने की मन में आकांक्षा जगी,
जिसे सरपंच जी ने पूरा करवाया. आश्रम में खिचड़ी व चूरा का प्रसाद मिला. वहाँ से चुनार
के किले की तरफ रवाना हुए. रास्ते में गाँव की एक चाय की दुकान पर रुककर चाय पी
तथा सरपंच जी को उनके घर उतारकर वे किले की और बढ़े. गंगा नदी पर पीपों का एक पुल
बनाया गया है, जिस पर से पर जाना अपने आप में एक रोमांचक अनुभव था. प्रवेश द्वार
से अंदर आते ही एक वृक्ष के नीचे एक महिला रजिस्टर लेकर बैठी थीं, जिसमें उन्होंने
अपने नाम लिखे. ननदोई जी पहले आ चुके थे, सो गाइड को नहीं लिया, उन्होंने सारा
किला घुमाया और इसके इतिहास से भी परिचित कराया. इस किले का जिक्र ‘चन्द्रकान्ता’ में
मिलता है. इसमें गहरी सुरंगें हैं, कुएं हैं, कैदियों को रखने के लिए भुतहा
कैदखाने हैं. काफी डरावना इतिहास है यहाँ का. चमगादड़ों का बसेरा है. किले की हालत
जर्जर हो रही है. कुछ समय पहले ही इसे पुरातत्व विभाग को सौंपा गया है. धूप तेज
होती जा रही थी सो वे शीघ्र ही वापस लौट पड़े और मडुआडीह होते हुए चौकाघाट स्थित
निवास पर पहुंच गये.
कल शाम तैयार होते-होते उन्हें देर हो गयी थी और रात्रि साढ़े आठ बजे के लगभग
विवाह के स्वागत स्थल पर पहुँचे. जून के एक पुराने मित्र के दो पुत्रों के विवाह
का रिसेप्शन था. मित्र अब इस दुनिया में नहीं हैं पर उनकी पत्नी ने बड़े स्नेह से
बुलाया है. द्वार पर सुंदर श्वेत पुष्पों की झालरें लगी हुई थीं. भीतर जाकर मंडप
दो भागों में बंट जाता था. दांयी तरफ पुरुषों के लिए और बायी तरफ महिलाओं के लिए. हॉल
के अंत में स्टेज बना था, सामने कुर्सियां रखी थीं. एक तरफ भोजन के स्टाल लगे थे.
कुछ देर में दोनों दुल्हनें गुलाबी लहंगों में सजी हुई लायी गयीं. मित्र की पत्नी
बेहद खुश थीं कि इतनी दूर से वे उनकी ख़ुशी में सम्मिलित होने आये थे. दावते वलीमा
में शाकाहारी भोजन एक अलग स्थान पर परोसा गया था, जो उन्होंने ग्रहण किया. आज
संध्या जून के एक अन्य पुराने प्रिय मित्र मिलने आ रहे हैं. वाराणसी की हवा में
कुछ अलग बात है, यहाँ होटलों के नाम भी काफी आध्यात्मिक हैं, समर्पण होटल, अपना
होटल, हनुमान चाय, कानूबाबू होटल आदि, मोदी सरकार के आने के बाद से सुबहे-बनारस कार्यक्रम
आरम्भ हुआ है, जिसमें हर दिन कोई नया कलाकार अपनी कला की प्रस्तुति रखता है.
No comments:
Post a Comment