Wednesday, March 8, 2017

तारों भरा आकाश


जीवन स्वप्न है, वे रात में जो स्वप्न देखते हैं उनके अलावा दिन भर में न जाने कितने स्वप्न देखते हैं, जिनका कोई आधार नहीं. कल रात उसके जीवन की अभूतपूर्व रात्रि थी. भगवद गीता के चार अध्याय पढकर सोयी थी. तारों भरा आकाश दिखा, चन्द्रमा दिखा और न जाने कितने दृश्य दिखे, लेकिन जगते हुए, वह जागरण भी और था, वह निद्रा भी और थी. कब सुबह हो गयी पता ही नहीं चला. सुबह से कई बार स्वयं को स्वप्न देखते हुए जगा चुकी है. उनका सारा जीवन एक लम्बा स्वप्न ही तो है, अब लगता है परम लक्ष्य भी इसी जन्म में मिलेगा. परमात्मा उसे कदम-कदम आगे बढ़ा रहे हैं और किस तरह उसे एकांत का अवसर भी मिल रहा है. परिचित एक-एक कर जा रहे हैं, समय बचता है साधना के लिए पूर्ण सुविधा होती जा रही है. इस बार तो नेट भी नहीं चला सो काफी समय उसके कारण भी बच गया. परसों जून आने वाले हैं, अभी दो रात्रियाँ हैं जिनमें उसे और गहरे अनुभव हो सकते हैं. कल एक सखी का जन्मदिन है, उसने उसकी साधना में अपरोक्ष रूप से बहुत सहायता की है. मानस के छह रिपुओं में काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर को दूर करने के लिए उन्हें पहले देखना आवश्यक था, उन्हें अपने भीतर वह देख पायी, वह उसका आईना बनी. इसके लिए उसका कृतज्ञ होना ही चाहिए. सद्गुरू जैसे उसके सद्गुणों के लिए आईना बने. उनके जीवन में घटने वाली हर छोटी-बड़ी घटना उनके जीवन को गढ़ती है. हर क्षण वह परमपिता उनके साथ है.  क्या नहीं कर सकता वह, अचिन्त्य है, अनुपम है, अनोखा है...उसे कोटि कोटि प्रणाम  !

कल रात भी अनोखी थी. कृष्ण का श्लोक अब स्पष्ट हो रहा है कि योगी तब जगता है जब अन्य सोते हैं. आज सुबह से उसे उसका चेहरा कुछ बदला-बदला लग रहा है. मृणाल ज्योति की प्रिंसिपल को भी लगा होगा जब शाम को उन्होंने कहा वह उससे योग सीखना चाहती हैं और आज ही आएँगी. हवाओं को भी खबर लग जाती है कि कहीं कोई फूल खिला है. सद्गुरू को भी खबर लग गयी होगी, उन्हें तो वर्षों पहले ही लग गयी थी. कितना अद्भुत है सब कुछ. कितना अनोखा है परमात्मा !

नन्हा सा पल खो न जाये
पागल मन यह सो न जाये
इस पल में ही राज छुपा है
जाग गया जो मिला खुदा है
सपनों की कुछ धूल छा गयी
स्वर्णिम रवि न पड़े दिखाई
आशाओं के पत्थर थे कुछ
कोमल पुहुप लता कुम्हलाई

उनके भीतर अनंत आकाश है, अनंत ऊँचाई है और अनंत गहराई है. अनोखे अनुभव हो रहे हैं उसे आजकल. जब कोई भीतर की यात्रा पर निकलता है तो सारी कुदरत उसका साथ देती है. कितना पावन होता है वह क्षण जब किसी के भीतर परम की प्यास जगती है. पहला अनुभव तो सम्भवतः उसी की कृपा से होता है, लेकिन उस अनुभव तक भी भीतर की कोई गहरी आकांक्षा होती है. भीतर तो वही है तो वही निकलता है स्वयं की खोज पर...आकाश में सब घटता है पर कुछ भी नहीं घटता. आकाश एक है, झोंपड़ी का हो या महल का, अरूप एक है रूपवान का हो या कुरूप का. नजर दीवारों पर हो तो भेद नजर आएगा, नजर भीतर के आकाश पर हो तो अभेद ही है..
घाटियों में बसे हैं लोग
बारिशों से डरे हैं लोग
बिजलियों की चमक
भर से कांपते हैं लोग !


आज उससे कविता नहीं बन रही है, लगता है अब परमात्मा उससे कुछ और काम कराना चाहता है. पहले कैसे झर-झर शब्द बहते थे, अब भीतर मौन है, अब शब्दों की क्या जरूरत अब तो मन की धारणा काफी है. अब न कुछ सिद्ध करना है न कुछ पाना है जो पाने वाला था वह खो गया और जिसे सिद्ध करना था वह माया सिद्द्ध हो गया था. भीतर का भय भी नष्ट हुआ, श्वास का कंपन गया, अकंप हृदय चाहिए तो भाव काफी है. सामने वाला चाहे समझे न समझे भीतर तो पता चल ही गया कि कंपन हो गया क्रोध की हल्की सी रेखा भी यदि छा गयी, भीतर पता चल ही जाता है, ईर्ष्या की धूमिल पंक्ति भी पता देती है, शील आवश्यक है और तब भीतर ही सब मिल जाता है, असली कवि स्वयं ही कविता हो जाता है ! 

3 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 09-03-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2603 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  2. स्वागत व बहुत बहुत आभार दिलबाग जी !

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