Friday, June 3, 2016

मुलेठी की मिठास


आज एकादशी है, भाद्रपद माह की एकादशी, कृष्ण के जन्म का महीना, अगस्त का अंतिम दिन !
कल जून ने ओशो की आत्मकथा का शेष भाग भी डाउनलोड कर दिया. रात को उसने उनसे कहा कि इतने वर्षों के साथ के बाद तो अब सीखना-सिखाना छोड़कर, दूसरा जैसा है वैसा ही स्वीकार कर लेना सीख लेना चाहिए. जब तक वे दूसरे के दोष देखते हैं उनका प्रेम भीतर बंद ही रहता है. इस दुनिया में उनके आने का एक ही लक्ष्य हो सकता है कि वे अपने भीतर प्रेम जगाएं, प्रेम से अपने आस-पास के वातावरण को भिगो दें ! अब दो-चार मिनट ही शेष हैं उनके लंच के लिए आने में. वह सर्दी-जुकाम से परेशान हैं, स्वाइन फ्लू के इस माहौल में मन में थोडा सा डर भी समाया होगा. आज ध्यान में एक-दो बार झटका लगा, बहुत दिनों के बाद ऐसा अनुभव हुआ. रात की नींद सपनों भरी थी. दिन में जो विचार भीतर चलते रहते हैं वही तो रात को दिखाई देने लगते हैं. रात को अवचेतन मन सक्रिय हो जाता है. जो विचारों से मुक्त है, वही स्वप्नों से मुक्त हो सकता है. विकारों से मुक्त हुए बिना विचारों से मुक्त होना सम्भव नहीं और विकारों में दो मुख्य हैं, राग व द्वेष, मन की समता बनाये रखना ही मन की शुद्धि है. समता की साधना ही एक दिन स्वप्नों से मुक्त कर देगी ! विपासना ध्यान इसमें अति सहायक है, देह को देखकर मन को समता में ले आना ही विपासना का लक्ष्य है.


उसके गले में हल्की खराश है, उज्जायी प्राणायाम तथा मुलेठी का सेवन किया. आज एक सखी से उसके बगीचे से नींबू मंगवाए, एक बार पहले उसने कहा था जब चाहिए तब ले लेने के लिए. उसे सब कुछ बिना किसी झिझक के कह सकती है, वह भी उसके जैसी है. वास्तव में देखें तो सभी सब जैसे हैं. एक का मन जान लें तो सबका मन जान लिया जाता है. एक ही है दो हैं ही नहीं, कोई द्वंद्व नहीं है इस क्षण ! वह इस समय ओपेरा के पेन से लिख रही है, जो बहुत अच्छा लिख रहा है. जून पिताजी को लेकर आज डिब्रूगढ़ जा रहे हैं, उनके दातों का एक्सरे कराना है. सुबह वे जल्दी उठे, जून को पुनः प्राणायाम में उत्सुकता जगी है. कल शाम को ध्यान किया, उसे अब ध्यान करने का मन नहीं होता, कोई सदा ही ध्यान में हो जो उसे अलग से ध्यान करने की आवश्यकता महसूस नहीं होती, लेकिन ध्यान की गहराई में जाना भी तो जरूरी है, जहाँ समाधि लग जाये. परमात्मा और सद्गुरु स्वयं ही उसे मार्गदर्शन देते हैं, जो आवश्यक होता है वह स्वयं ही उससे करा लेते हैं और शेष छूट जाता है. अभी कुछ देर पूर्व एक दक्षिण भारतीय सखी से बात की, वह दो महीने चेन्नई में रही पर एक बार भी वहीं रहने वाली दूसरी सखी से न मिली, न फोन पर ही बात की. वह इस बात का इंतजार करती रही कि वह उसे फोन करेगी. छोटे से जीवन में वे कितना तनाव अपने भीतर एकत्र कर लेते हैं. अपेक्षा में जीने वाला मन दुःख को निमन्त्रण देता ही रहता है ! लाओत्से ने कहा है कि कोई उसे हरा नहीं सका, कोई उसका शत्रु भी न बना, कोई उसे दुःख भी न दे सका क्योंकि उसने न जीत की, न मित्रता की, न सुख की अपेक्षा ही संसार से की, जो भी चाहा वह भीतर से ही और भीतर अनंत प्रेम छिपा ही है !   

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