कामना संसार की होगी तो कभी पूर्ण
नहीं होगी, राम की होगी तो पूर्ण हुए बिना रह नहीं सकती. राम तो मिलेगा ही संसार
भी पीछे-पीछे आएगा. जीवन में कितनी बार इस बात का अनुभव हुआ है जब भी उसने अपना
सुख संसार पर निर्भर किया, धोखा ही मिला, जैसा चाहा वैसा नहीं हुआ, आशा कितनी बार
निराशा में बदली. इस सत्य को यदि वे सदा याद रख सकें और किसी से कोई अपेक्षा न
रखें तो मुक्त रह सकते हैं. अपने भीतर ही सुख की खोज करें जो बिखरा ही हुआ है, जो
अनंत है. जो असीम है, जो सहज ही प्राप्त है ! उसने सोचा, यदि मानव को वह मिल जाये
तो उसका जीवन क्या रुक नहीं जायेगा ? यदि उनकी लालसा सुख की है और सुख उन्हें बिना
कुछ किये यूँ ही मिल जाये तो वे कुछ करना ही क्यों चाहेंगे, तो इसका उत्तर भी भीतर
से आया कि जिस तरह सुख सहज प्राप्त है, कर्म करने की इच्छा भी स्वाभाविक है, उस
स्थिति में उनके कर्म तो होंगे पर वे स्वार्थ से भरे नहीं होंगे, वे बांधने वाले
नहीं होंगे, वे उन्हें कष्ट नहीं देंगे, वे भी आनंद को बढ़ाने वाले होंगे. यदि ऐसा
है तो क्यों नहीं हर कोई अपने भीतर जाकर उस सुख राशि को खोज लेता ? हर कोई स्थिर
बैठना नहीं जानता, भीतर जाना नहीं सीखता, बाहर ही बाहर उसे इस तरह बांधे रखता है
कि कोई भीतर है भी इसका भी उसे भरोसा नहीं होता, दिन-रात जो बाहर ही रहता है, उसे
पता ही नहीं चलता कि उसके भीतर भी एक आकाश है, जहाँ सूरज उगता है. वह अपने भीतर के
हिरण्यमय कोष से अनजान ही रह जाता है. भीतर की दुनिया उसे दूर की, रहस्यमयी सी
प्रतीत होती है, जबकि बाहर से उसका दिन-रात का नाता होता है. बुद्धि की सीमा जहाँ
समाप्त होती है, हृदय का आरम्भ होता है ! लेकिन वे अपनी बुद्धि पर हद से ज्यादा
भरोसा करते हैं. हर कोई दूसरे को मूर्ख तथा स्वयं को बुद्धिमान समझता है. छोटी से
छोटी बात में भी वे अपने अहम की पुष्टि चाहते हैं. अहंकार की जड़ इस बुद्धि में ही
है, जो उन्हें पश्चाताप के सिवा कुछ देकर नहीं जाती. हृदय में प्रवेश होते ही
बुद्धि का चश्मा उतर जाता है. तब कोई छोटा-बड़ा नहीं रहता.
आज नन्हा आने वाला है, उसने पिछली बार उन्हें स्मरण दिलाया
था कि इतने सालों में वे आगे नहीं बढ़े हैं, उनके विवादों का कारण भी वही है और
डायलाग भी वही हैं. इस बार भी वह किसी कटु सत्य की ओर इशारा करेगा. बच्चे
माता-पिता को बारीकी से परखते हैं. वह स्वयं की कमियों को नहीं देख पायेगा, जैसे
वे स्वयं को पूर्ण मानने की गलती कर बैठते हैं. नये वर्ष का आरम्भ हो चुका है,
उसकी नये वर्ष की कविता कितने लोगों ने पढ़ी, नेट के माध्यम से उसे कितने पाठक मिले
हैं. कितना कुछ लिखना अभी शेष है. यूनिकोड में लिखना भी सीख लिया है, जरा भी कठिन
नहीं है. अभी लोहरी व गणतन्त्र दिवस की कविता लिख सकती है तथा विवाह की वर्षगांठ
के लिए भी. ‘हिन्दयुग्म’ में कितनी कविताएँ पढने को भी मिलती हैं. हजारों लोग लिख
रहे हैं. प्रभु ने उसे भी लेखन की शक्ति दी है, जिसे निखारना, संवारना उसका
कर्त्तव्य है, अन्यथा यह उसका अपमान होगा. हर दिन कुछ न कुछ लिख सके ऐसा प्रयास इस
नये वर्ष में होना चाहिए, और नहीं तो डायरी ही रोज लिखे, पत्र लिखे चाहे भेजे
नहीं. गुरूजी को पत्र लिखने का कार्य भी आजकल छूट गया है. अपनी आध्यात्मिक प्रगति
का लेखा-जोखा भी इसलिए रुक गया है, जो यह मान लेता है कि पा लिया है, जान लिया है
उसका ज्ञान चक्षु बंद हो जाता है !
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