Thursday, March 3, 2016

वसंत के फूल


हर रोज वह दो पेज ‘भागवत महापुराण’ तथा एक-दो पेज ‘महाभारत’ के पढ़कर सासु माँ को सुनाती है. कभी-कभी पढ़ते वक्त यदि मन किसी अन्य बात के बारे में सोचने लगता है जैसे कि नाश्ते में क्या बनाना है, तो मुख बोलता है, आँख्ने देखती हैं, कानों में शब्द भी पड़ते हैं, पर भीतर एक भी शब्द का ज्ञान नहीं पहुँचता, फिर सजग होकर पूरा वाक्य पुनः पढ़ती है. आत्मा यह खेल भी देखती है, बुद्धि उस वक्त भी है पर क्योंकि मन से जुड़ी नहीं है तो इन्द्रियों के कार्यों का उसे भान  नहीं होता. मन एक वक्त में एक ही बात का चिन्तन कर सकता है और वे उसे टुकड़ों में बांटना चाहते हैं. आत्मा ही पाँचों देहों को सत्ता स्फूर्ति देती है, वह सत्य है, उपासना के योग्य है, ‘मैं’ का मूल है, यहाँ मन की गति नहीं, वाणी, बुद्धि की ताकत नहीं, क्योंकि बुद्धि का आधार वही है. इसी महीने गुरुपूर्णिमा है, वे सभी मिलकर इस उत्सव को मनाएंगे. ईश्वर प्राप्ति ही मानव का ध्येय है, सद्गुरू उसी मार्ग पर ले जाते हैं. एक ब्रह्मज्ञानी करोड़ों को ऊंचा उठाने का सामर्थ्य रखते हैं, ऐसे ब्रह्मवेत्ता व्यास जी की स्मृति में व्यास पूर्णिमा मनायी जाती है. इसे देव पूर्णिमा भी कहते हैं. 

आज फिर उसने सुंदर वचन सुने, ईश्वर उनके भीतर है, जब वे तय करें उससे मिल सकते हैं. जीवन से भागना नहीं है, सारे अनुभवों से गुजर जाना मुक्ति का उपाय है. विचार की सीढियाँ चढ़कर ही कोई निर्विचार तक पहुंच सकता है. संसार एक चुनौती है, एक आयोजन है परमात्मा तक पहुंचने का. जीवन की पाठशाला मेनन उतर कर उत्तर स्वयं ही खोजने होंगे. जीवन उन्हें तीन सोपान देता है देह, मन तथा आत्मा, इनसे चढकर ही चौथे को पाया जा सकता है. जीवन के सभी रूप शुभ हैं, उन्हें सहज स्वीकारना होगा. जीवन में क्षुद्रताओं को उच्चताओं से लड़ाने जायेंगे तो उच्चता ही हारेगी.

यह जीवन तो वसंत है, सारा जगत उल्लास से भरा है और वे अब भी सो रहे हैं. एक बार यदि कोई जग जाये तो ऐसा वसंत जीवन में आ सकता है जो परम है. संसार की हर खोज व्यर्थ हो जाती है क्योंकि संसार वह दे ही नहीं सकता जो वे चाहते हैं, वे जिसे फूल बनकर चाहते हैं वह काँटा बनकर चुभने लगता है. उनका मन कहीं बैठना ही नहीं चाहता क्योंकि वह हर वक्त किसी न किसी की तलाश में रहता है. परमात्मा के बिना उसका ठौर नहीं, वह संसार में भी उसी को खोज रहा है, पर वह संसार के पार ही मिलता है. वे जिस प्रेम भरी नजर से इस जगत को देखते हैं उसी नजर को परमात्मा को देखने में लगाना है. उन के भीतर जो छोटा सा प्रेम का झरना है उसी को एक दिन सागर से मिलाना है. साधना में कुछ नया नहीं करना है, बस दिशा बदलनी है. हर कोई आनन्द पाना चाहता है, वह ठीक है, लेकिन जिस राह से चल कर पाना चाहता है वह राह गलत है. भक्त संसार के सौन्दर्य को भी परमात्मा का ही मानता है. उनका जीवन कब गुजर जायेगा पता ही नहीं चलेगा. वे अपने रूप की अकड़ में अपने असली स्वामी को रिझा ही नहीं रहे. उनके जीवन की एकमात्र सफलता इसी में है कि वे अपने भीतर के अमृत से जुड़ जाएँ. उनके चित्त का पंछी उसी अमृत का पान करना चाहता है, वे संसार में लगाने के लाख उपाय करें यह वहाँ नहीं लग सकता, यह तो शाश्वत को ही चाहेगा. जैसे-जैसे चित्त को लगता है वसंत बीता जा रहा है, उसकी अशांति बढती जाती है, उसकी बेचैनी का अर्थ है कि वह परमात्मा की ओर चलना चाहता है, वह अपने घर जाना चाहता है.

2 comments:

  1. आपकी पोस्ट को आज की बुलेटिन राष्ट्रीय सुरक्षा दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान जरूर बढ़ाएँ। सादर ... अभिनन्दन।।

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  2. बहुत बहुत आभार हर्षवर्धन जी

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