Saturday, March 5, 2016

काजीरंगा का सौन्दर्य


उसे कल रात अस्वस्थता की बेचैनी में भी भीतर सूर्योदय के दर्शन हुए, देह अस्वस्थ है पर भीतर की शांति वैसी ही है. पिछले चार-पांच दिनों से सर्दी-जुकाम ने अपना डेरा डाला हुआ है. उसके भीतर रोग-प्रतिरोधक क्षमता जैसे घटती जा रही है. फरवरी से यह सिलसिला शुरू हुआ है, उसकी लापरवाही का नतीजा ही है या किसी कर्म का फल है. इस समय सुबह के साढ़े आठ हुए हैं, बाहर तेज धूप है. कल जून दिल्ली जा रहे हैं, इतवार को लौटेंगे, इन पांच दिनों में उसे स्वयं को पूर्णतया स्वस्थ कर लेना है. इस वक्त आँखें भारी हो रही है, उनमें पानी भर गया है. भीतर जल तत्व की अधिकता हो जाने से ही जुकाम होता है. खैर, शरीर के रोग तो एक न एक दिन समाप्त हो ही जायेंगे, मृत्यु के साथ तो यह शरीर भी नष्ट हो जायेगा, लेकिन वह तब भी रहेगी एक नई  दुनिया में आँख खोलने के लिए. परमात्मा की रची यह सृष्टि कितनी अद्भुत है, वह स्वयं भी तो कितना अद्भुत है, वह हर क्षण उन पर नजर रखे हुए हैं, उनका एक भी कर्म, एक भी चेष्टा, एक भी विचार उससे छिपा नहीं है, जब भी वे असहज होते हैं समता खो देते हैं वह भीतर से चेताता है, बल्कि जब भी वे कुछ गलत करते हैं वही असहजता के रूप में उनके भीतर प्रकट होता है. जब वे अपने मूल स्वभाव में होते हैं, उसी में होते हैं. जब कभी मन उससे हट जाता है और वे कुछ और सोचने लगते हैं तो हाथ का काम भी ठीक नहीं होता, कान भी नहीं सुनते, उससे जुड़कर ही इन्द्रियां अपने-अपने काम ठीक से करती हैं. उसके पेट का घेरा भी बढ़ गया है, पिछले दो-ढाई महीने जिस तरह बीते उसमें यह होना ही था. कोई खुराक तो ज्यादा ले पर काम उतना ही करे तो नतीजा वही होगा जो उसके साथ हो रहा है, पहले अजीर्ण बाद में सर्दी-जुकाम ! प्रकृति अपना काम मुस्तैदी से करती है. देह को जो नहीं चाहिए उसे निकालने का मार्ग खोज लेती है, वे ही अज्ञानी की तरह व्यवहार करते हैं. डायरी लेखन भी नियमित नहीं हुआ, डायरी लिखते समय वे अपने करीब होते हैं, खुद की खबर मिल जाती है वरना दुनिया की खबरें एकत्र करते-करते अपना ही हाल बेहाल हो जाता है. लिखने का क्रम (कविताएँ) भी छूट सा गया है, मन कैसी विरक्ति में चला गया है, इस परिवर्तनशील जगत का उसे कुछ भी नहीं भाता, लिखने की प्रेरणा अब मिली है. ‘साहित्य अमृत’ में उसकी कविताएँ छपी हैं, ‘काजीरंगा’ पर लिखी वे चार कविताएँ जो उसकी यथार्थ अनुभूतियों पर आधारित थीं. कविता जब जीकर उतरती है तभी सार्थक होती है. गढ़ी हुई कविता तुकबन्दी हो सकती है. अनुभूतियाँ तो अब भी होती हैं पर लिखने के लिए कलम नहीं उठती.

जून ने आज एक ऐसी खबर सुनाई जिससे मन में चचेरे भाई की चिंता होने लगी, वह युएई की उस फैक्ट्री में सही सलामत हो, वह अपने देश ही लौट आये तो अच्छा है. उसकी पत्नी भी वापस आ गयी है, उसे वहाँ का खाना अच्छा नहीं लगा. खाने की बात पर ही तो फैक्ट्री के मजदूरों ने हड़ताल की थी, गाड़ियों में आग लगा दी, लेकिन वे अरब जो पैसा कमाने के लिए ही फैक्ट्रियां चलते हैं, उन्हें यह कैसे बर्दाश्त होता. जून एक और खबर भी लाये हैं. प्रलय का दिन भी आने वाला है मात्र चार वर्ष और यह पृथ्वी रहेगी, ब्रह्मकुमारियाँ भी तो यही कहती हैं. दुनिया में ऐसी-ऐसी घटनाएँ हो रही हैं जो पहले नहीं होती थीं, कुछ हलचल तो है, दुःख-बीमारियाँ बढती जा रही हैं, पर ऐसे वातावरण में भी श्री श्री तथा रामदेव जैसे अनेकों संत हैं जो जन-जन को सद्मार्ग पर ला रहे हैं, आशा का संदेश दे रहे हैं यदि ऐसा कुछ होने वाला है तो उन्हें भी आभास होना चाहिए. परमात्मा जो भी करेंगे अच्छा ही होगा. यदि धरती न रही तो वे किसी और सौरमंडल के किसी अन्य ग्रह पर जन्म लेंगे. आत्मा तो अमर है, वह शाश्वत है, परमात्मा की लीला है कि यह ब्रह्मांड ऐसा है. अपने नियमों के अनुसार ही इसे रखने या नष्ट करने का उसे अधिकार है. उनके पास थोड़ा समय है उसको जानने का अवसर हाथ से न निकल जाये. कभी लगता है कि वह तो मिल ही गया है पर कभी अपने अज्ञान पर नजर जाती है तो लगता है अभी बहुत आगे जाना है.  

आज पुनः भीतर एक नयी सुबह हुई है, जून बाहर हैं उसके पास ढेर सारा अवकाश है. माँ हैं पर वह भी उसकी तरह मौन ही रहना ज्यादा पसंद करती हैं, कानों से सुनाई भी कम देता है. उसका स्वास्थ्य पहले से बेहतर है पर छाती में अभी भी कफ है, हल्का व सुपाच्य भोजन मानव की सबसे बड़ी आवश्यकता है, जून भी अब उसका ख्याल रखने लगे हैं फोन पर 9x की बात बताकर सद्गुरु का दर्शन कराया, वह तो सदा से ही ध्यान रखते आये हैं पर वह कभी-कभी उल्टा भी पड़ जाता है. 

No comments:

Post a Comment