Tuesday, December 8, 2015

झील की तलहटी


जब तक कोई अपनी सारी वृत्तियों को इष्ट के चरणों पर विलीन नहीं कर देता तब तक जीवन में विशेषता नहीं होती. एक बार अन्न का दाना अंधकार में दब जाता है तो ही हजार गुना होकर वापस आता है. सद्गुरू को जब कोई समर्पित हो जाता है तो उसके लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं रह जाता ! जीवन की सारी भयानकता सद्गुरू के मिलने तक ही होती है, उसके बाद तो केवल भगवान ही भगवान जीवन में रहते हैं ! हर घटना तब उसके लिए शुभ ही होती है. नया दृष्टिकोण, नयी विचार धारा, नया जीवन मिलता है ! उसको भीतर से रस मिल जाता है और वह एकाग्र हो जाता है ! यही एकाग्रता फिर सजगता में बदलती है और सजगता ही ध्यान है, सुरत है, प्रेम है, भक्ति है, ज्ञान है !
ज्ञान तो मिल जाता है पर उसमें टिकने के लिए आसक्ति का त्याग करना पड़ता है. सुख के प्रति आसक्ति और कर्म के प्रति आसक्ति इसमें टिकने नहीं देती. टिकने के बाद तो कण-कण में व्याप्त चेतना का सहज ही अनुभव होने लगेगा.

देह प्रत्यक्ष है, आत्मा परोक्ष है. परोक्ष को पाकर ही एक तृप्ति का, शांति का अनुभव होता है. इस शांति को पाकर यदि राग हो जाये तो यह शांति भी अशांति का कारण बन जाती है. उसके भीतर भी मौन उतर आया है, गहरा मौन, विचार आते हैं पर विचार जैसे ऊपर-ऊपर तैरते हैं, नीचे की झील साफ दिखाई देती है. बस चुपचाप इस झील की तलहटी में बिछी ठंडी गीली रेत पर पड़ी सीपियों में से किसी एक पर उसका ध्यान रहता है. वहाँ से ऊपर जगत के कोलाहल में आने का भी मन नहीं होता. ऐसा ही अनुभव आज ध्यान में हुआ जब डेढ़ घंटे से भी ज्यादा कुछ मिनटों तक वह प्रकाश के समुन्दर में डूबती-उतराती रही. वह प्रकाश अब भी गंध रूप में उसके साथ है !

सद्गुरू वह है जिसके ‘भीतर’ को सारी सुप्त शक्तियाँ धारण करने का मौका मिलता है, वह निस्वार्थ भाव से उन शक्तियों का उपयोग जगत के लिए करता है. उसके भीतर अपार करुणा, अपार कृपा होती है, जो सभी को बिना किसी भेदभाव के मिलती है. उसने साधना इन शक्तियों को पाने के लिए नहीं की होती, वे तो सहज प्रेम के कारण ही चेतना का ध्यान करते हैं, आत्मा में रमन करते हैं, क्योंकि उनकी बुद्धि इतनी शुद्ध हो जाती है कि वे इस दृश्य जगत के पीछे अदृश्य सत्ता को देख लेते हैं. जगत की क्षण भंगुरता, परिवर्तन शीलता, स्वप्नावस्था तथा नश्वरता को पहचान उसे त्याग देते हैं. स्वरूप से तो नहीं त्याग सकते पर मन से त्याग देते हैं ! उनके पास सारी दृष्टियाँ होती हैं, वह सारे मार्ग बता देते हैं, अपनी अपनी योग्यता व रूचि के अनुसार साधक उनमें से किसी एक पर चलने के लिए समर्थ है !


जीवन का एक सत्य है कि संसार को किसी का मन नहीं चाहिए, उसकी सेवा चाहिए, बस उनका काम होता रहे, मन की किसी को जरूरत नहीं है और यह मन न ही परमात्मा के किसी काम का है, वह तो मन से परे है, तो ध्यान और प्रेम के मार्ग पर इसे मर ही जाना होगा. अहंकार को ही केवल मन चाहिए, यह इसी के बल पर जीता है. ‘मैं’ है तो इच्छा है, डर है, कामना है, सुख है, दुःख है, यदि ‘मैं’ ही नहीं तो इनमें से कोई भी नहीं और तब मन भी नहीं. बिना अहंकार के जीने वाले को हो सकता है यह दुनिया पागल कहे, पर उसकी भी कोई चिंता नहीं, पागल तो हर व्यक्ति यूँ भी हर दूसरे को समझता ही है. हर कोई स्वयं को बुद्धिमान ही जानता है और दूसरे को नासमझ, तो यदि कह भी दिया तो सुन लेना चाहिए. कोई ध्यान के द्वार से लौटा हो या भक्ति के, इसका पता तो चले, कोई रेखा तो हो जो उसे और एक संसारी को नास्तिक को अलग करती हो, पर सद्गुरू यह भी तो कहते हैं कि भेद नहीं है. दो हैं ही नहीं तो भेद हो कैसे, दूसरा कोई है ही नहीं, जो भी हैं वे भी तो उसी परमात्मा का ही रूप हैं. परमात्मा ही विभिन्न रूपों में अपने को व्यक्त कर रहा है. एक बार अपने भीतर प्रवेश मिल गया तो सारे भेद मिट जाते हैं !    

4 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 10 - 12 - 2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2186 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  2. बहुत बहुत आभार दिलबाग जी !

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  3. यही ज्ञान तो पाने की इच्छा में लोग पूरा जीवन बिता देते हैं।

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  4. सुंदर प्रस्‍तुति‍

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