उसे लगता है प्रेम कितने रूपों में उनके
सम्मुख आता है, कई बार उन्हें स्वयं भी ज्ञात नहीं होता कि किसी के प्रति इतना
प्रेम अंतर में छिपा है, पर वह अपना मार्ग स्वयं ही ढूँढ़ लेता है. जिस क्षण कोई
ऐसा विशुद्ध प्रेम पाता है, वह क्षण भी दैवीय होता है और वह क्षण एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया की परिणति होता
है. ईश्वर के प्रति प्रेम भी ऐसे धीरे-धीरे मन में एकत्र होता जाता है. ईश्वर से
जो प्रेम उसे मिलता है वह उसे सहेजती जाती है अनजाने ही, फिर वही प्रेम कभी आँखों
से बह निकलता है तो कभी कोई गीत बनकर. प्रेम कचोटता भी है सहलाता भी है यह उदात्त
बनाता है. सद्गुरु इसी प्रेम को भक्ति का नाम देते हैं, प्रेम के लिए प्रेम ! एक
अनवरत धारा जो प्रिय के प्रति मन में बहती है, चाहे वह उसे जने अथवा न जाने, इसकी
परवाह किये बिना, पर प्रेम अपना मार्ग खोज ही लेता है !
उसका नाम अंतर
को पवित्र करता है, उसे जप में कभी आलस्य नहीं होता, अच्छा लगता है और नाम सुमिरन के
अतिरिक्त बात करना भी बोझ मालूम पड़ता है. सद्गुरु का सत्संग मिलता रहे तो वह चौबीस
घंटे वहीं बैठी रहे, सचमुच अध्यात्म के मार्ग पर चलने वाले निराले होते हैं, जगत
से उल्टा होता है उनका व्यवहार. वह सांसारिक बातों में दक्ष न भी हो पर अपने चिर
सखा कान्हा के सम्मुख वह सत्य में स्थित होती है, ईश्वर के सम्मुख वह अपने पूर्ण
होश हवास के साथ प्रस्तुत होती है और तभी तत्क्षण उसकी उपस्थिति का भास भी होता
है, वह इतना प्रिय है, प्रियतर और प्रियतम है कि उसके सिवा सभी कुछ फीका लगता है.
लेकिन यह जगत भी तो उसी का प्रतिबिंब है. आज सद्गुरु ने कहा कि लोग उन्हें
अन्तर्यामी कहते हैं पर उन्हें अपनी चप्पल का भी पता नहीं है, ईश्वर ही उनक द्वारा
अनेकों कार्य कराते हैं.
आज पुनः उपवास
का दिन आया है, साधना का विशेष दिन, यूँ तो उसके लिए हर घड़ी, हर क्षण साधना का ही
क्षण है. अनुभव् हुआ कि अपने कर्त्तव्यों में, भौतिक कार्यों में थोड़ी असावधानी
बरती तो तुरंत मन स्वयं को फटकारने लगा, वह कौन है जो भीतर से सचेत करता है, सुबह
जगाता है, जो एक प्यास जगाये रखता है, भीतर जो सुह्रद बैठा है, जो अकारण दयालु है,
कोई उसके प्रेम का पात्र है या नहीं वह इसकी भी परवाह नहीं करता.
आज प्रतिपदा
है, नवरात्रि का शुभारम्भ, कल पितरों को जल अर्पण करने का दिन था. भारतीय संस्कृति
में मृतकों के प्रति सम्मान दिखने के लिए भी कितना आयोजन है, पर आज वे अपनी
संस्कृति भूलते जा रहे हैं. आज सद्गुरु ने कितने सुंदर शब्दों में कृष्ण की
नागलीला का वास्तविक अर्थ बताया, कालियानाग के फन विभिन्न वासनाओं के प्रतीक हैं
जो सताते हैं, उनपर पैर रखकर कृष्ण जब नृत्य करते हैं अर्थात आत्मा जब वासनाओं पर
विजय पा लेती है तो कालियानाग से मुक्त हो जाती है. आदिगुरू शंकराचार्य कृत ‘विवेक
चूड़ामणि’ दीदी ने भेजी है, अद्भुत ग्रन्थ है. अनुपम है और महान है ! गुरू और शिष्य
के बीच हुए अद्भुत संवाद के द्वारा वेदांत की शिक्षा प्रदान करने का अनूठा प्रयोग
! षट् सम्पत्ति से युक्त सदाचारी शिष्य ही ब्रह्म ज्ञान पाने का अधिकारी है. जीवन
में शम, दम, नियम, सदाचार, अहिंसा आदि गुण हों तभी कोई प्रभु का ज्ञान पाने के
योग्य है. अंतर में भक्ति और श्रद्धा भी अनिवार्य है.
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