आज कृष्ण जन्माष्टमी है, उन्होंने फलाहार लेने का व्रत किया
है. मौसम भीगा-भीगा है जैसे उस दिन जब हजारों वर्ष पूर्व कृष्ण ने मथुरा की जेल
में जन्म लिया था. कृष्ण उनकी आत्मा हैं, जगत में रहते हुए यदि उनका स्मरण बना रहे
तो ही कोई अपने स्वरूप में स्थित रह सकता है. कृष्ण का अवतरण जब-जब भीतर होता है,
तब-तब कोई अपने में स्थित होता है, अन्यथा स्वरूप से हट जाता है. कितने नाम हैं
कृष्ण के, श्यामसुन्दर का अर्थ उसने सुना, श्याम हो गयी आत्मा को जो सुंदर बना दे
वही है श्यामसुंदर ! गोपियों ने कृष्ण के प्रति पूर्ण समर्पण किया था पर राधा ने
स्वयं को मिटा ही दिया. स्वयं को मिटाकर वह कृष्ण रूप ही हो गयी. जब वह कृष्ण से
अलग रही ही नहीं तो कैसा विरह, कैसी पीड़ा. विसर्जन करना बहुत कठिन है, अहम् का
विसर्जन, शक्ति, समय, सेवा का विसर्जन, प्रिय के साथ एकाकार हो जाना. भक्त भगवान
को स्वयं से अलग मानकर उसकी पूजा करता है, वह अपनी निजता को बचाए रखता है पर
ज्ञानी भक्त स्वयं को मिटा देता है, वह स्वयं को उनसे अलग कैसे मान सकता है.
किन्तु सेवा की यह भावना किसी बिरले को ही प्राप्त होती है. जन्मों के संस्कार
अहंकार से मुक्त होने नहीं देते. कर्म का बंधन काटना उनका कर्त्तव्य है, मुक्तामा
ही भक्ति कर सकता है. उसने प्रार्थना की, मनसा, वाचा, कर्मणा ऐसा कुछ भी न करे जो
किसी को दुःख दे, ईश्वर उसे सुबुद्धि दे. एक न एक दिन लक्ष्य मिलेगा, अहम् का
विसर्जन होगा और वह परम प्रिय परमात्मा के प्रेम की भागी बनेगी. ज्ञान के साथ जीना
यदि आ जाये तो संसार में दुःख का नाम भी नहीं दीखता, वही संसार जो पहले अशांति का
कारण बन जाता था उसकी जगह एक सुंदर संसार ने ले ली है !
अभी कुछ देर पहले
उसे कान्हा की झलक मिली, कितना सुंदर रूप था उसका, ऐसा रूप क्या उसका मन बना सकता
है, विश्वास नहीं होता, वह परब्रह्म परमात्मा ही कृष्ण बनकर उसकी बंद आँखों के
सामने प्रकट होने आया था. उनके मध्य माया का पर्दा थोड़ा झीना हुआ है, पर्दे के पार
से वह कितना मोहक है तो जब सम्मुख आएगा तो हालत क्या होगी. प्रकृति पहले उन्हें
तैयार करती है फिर अपने रहस्य खोलती है. उसका मन अभी तक पूर्ण शुद्ध नहीं हुआ है,
तभी एक झलक दिखाकर कृष्ण लुप्त हो जाते हैं. शुद्ध मन, शुद्ध बुद्धि, शुद्ध आत्मा
तीनों एक ही बात है. ईश्वर की निकटता का अहसास ही जब इतना मधुर है तो स्वयं ईश्वर
कैसा होगा. संतजन इसलिए उसकी महिमा का बखान करते नहीं थकते. सद्गुरु की कृपा भी
अनंत है जो अनंत का दर्शन करा देती है. सारा ज्ञान भीतर ही है, कहीं-कहीं वह प्रकट
होता है, वे संतजन होते हैं जिनके भीतर का ज्ञान प्रकट होने लगता है.
तन की पीड़ा की झलक
अब भी विचलित करती है मन, बुद्धि को, अभी देहात्म बुद्धि का क्षरण नहीं हुआ. क्षण
दो क्षण को ही सही पर झुंझला जाता है मन अब भी, अर्थात मन का निग्रह अभी नही हुआ,
पर भीतर जाते ही कैसा आनंद मिलता है और तब सब कुछ विस्मृत हो जाता है. सद्गुरु के
ज्ञान का आश्रय लेकर स्वयं को समझाने में सफल भी हो जाती है वह. वाणी में कोमलता
नहीं तो भक्ति अभी अधूरी है, कभी-कभी न चाहते हुए भी बोलना पड़ता है, तब भी भीतर का
प्रेम जाना तो नहीं चाहिए, प्रेम तो सभी से बड़ा है न, प्रेम तो ईश्वर है न, ईश्वर
किसी से बात करेगा तो प्रेमपूर्वक ही करेगा, चाहे वह पुण्यात्मा हो या पापी, और
फिर वह तो उनके चरणों की धूल के बराबर भी नहीं, तो उसे अपनी वाणी पर प्रतिक्षण नजर
रखनी होगी. कठोर बात न निकले, कहने का ढंग भी अप्रिय न हो, साधक यदि सचेत नहीं
रहेगा तो पीछे चला जायेगा.
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