Tuesday, April 24, 2018

सिया के राम



कल रात्रि संदेह के संस्कार को भीतर स्पष्ट देखा, सद्गुरू कहते हैं, विकार को देखना ही उससे मुक्त होने की क्रिया है. व्यर्थ ही मन संदेह से ग्रस्त रहता है, व्यर्थ ही वस्तु, व्यक्ति तथा परिस्थिति के प्रति मन में आशंका होती है, किसी से मिलने जाना हो तो मन कहेगा, शायद वह घर पर न हो, अथवा हो तो व्यस्त हो, शायद ऐसा हो शायद वैसा हो..! कितना हल्का लग रहा है भीतर, मन अब अस्तित्त्व के प्रति अर्थात सभी के प्रति विश्वास से भर गया है. सुबह घने कोहरे के मध्य टहलने गये वे. स्नान के बाद सभी के फोन व संदेश आने लगे, आज उनके विवाह की सालगिरह है. दोपहर को क्लब की मीटिंग है, शाम को मेहमान आयेंगे. वह गाजर-ब्रोकोली और पनीर भी बना रही है शेष व्यंजनों के साथ. नन्हे का भी मुबारकबाद का फोन आया, उसे एक अच्छा रसोइया मिल गया है पर दिन में एक ही बार आता है. बड़ी बुआ ने भी शुभकामना दी, अब उनका स्वास्थ्य पहले से काफी ठीक है. पिताजी का फोन आया, ‘सिया के राम’ उन्हें भी अच्छा लग रहा है. वह कह रहे थे, सीता का अभिनय कर रही कलाकार में उन्हें उसकी झलक मिलती है, पिता का हृदय सन्तान के प्रति कितना स्नेह से भरा होता है. पिछले दो-तीन दिनों में ड्राइव-वे पर किसी ने खाली बोतल फेंकी, कांच बिखर गया. जून ने आज शिकायत की है. समाचारों में सुना, पठानकोट में हुए आतंकी हमले में कितने जवान मारे गये, सभी आतंकवादी भी मारे गये. जब से दुनिया बनी है शायद तभी से यह संघर्ष चल रहा है, जैसा संघर्ष मानव के भीतर चलता रहता है !

नकारात्मकता का कीट एक क्षण के लिए सिर उठाता है और ज्ञान का प्रकाश उसे पुनः भाग जाने के लिए विवश करता है. माया का जादू अब और नहीं चल सकता. माया ने बहुत नचा लिया अब भीतर जो स्थिरता डिग-डिग जाती थी, अचल होने लगी है. यूनिवर्स से कितना सुंदर संदेश मिला आज, कुछ बातें तर्क से परे होती हैं. इन संदेशों के लेखक एक आधुनिक संत हैं जो लाखों लोगों को प्रेरित कर रहे हैं, कल का संदेश बिलकुल वही है जो आजकल वह स्वयं भी अनुभव कर रही है. उनकी दुनिया उनके मन का ही खेल है. मन में ड़ू’बे रहकर वे वस्तविकता से दूर ही रह जाते हैं और व्यर्थ ही ऊर्जा गंवाते हैं. जिस क्षण भी वे सत्य से हटते हैं, माया के घेरे में आ जाते हैं. इसीलिए संत कहते आये हैं, ज्ञान का पथ तलवार की धार पर चलने जैसा है. कल शाम का उत्सव अच्छा रहा, उन्होंने शकरकंद भूना और विशेष भोज ग्रहण किया. सुबह मृणाल ज्योति गयी, क्लब के लिए खरीदा गया बड़ा सा कार्पेट लेकर, जिसपर बैठकर बच्चों ने योगासन किये.

चीजें अब स्पस्ट होती जा रही हैं, उनके व्यर्थ के संकल्प ही सबसे बड़ी बाधा हैं. उनकी वाणी की अस्पष्टता ही उनके विकास में बाधा है. मन जितना-जितना शांत होगा, सहजता में रहेगा, वाणी भी सहज होती जाएगी. उसे अपने जीवन में क्या चाहिए, एक सहज मन और स्पष्ट, सुमधुर वाणी, इसके होने पर शेष तो आ ही जायेगा. परमात्मा के प्रति जितना गहन समर्पण भाव होगा, जितना प्रेम होगा उसी अनुपात में मन शांत होगा, उसी अनुपात में व्यर्थ के शब्द मुख से नहीं निकलेंगे. सुबह समय पर उठे, रात देर तक क्लब से गाने की आवाजें आती रहीं, पर नींद कब आ गयी पता ही नहीं चला. भीतर एक होश बना रहा फिर भी कुछ याद नहीं है, टहलने गये तो वापसी में वर्षा आरम्भ हो गयी, लौट कर घर आये ही थे कि वर्षा तेज होने लगी, जैसे उसे पता चल गया हो कि वे सुरक्षित घर लौट आये हैं.     

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