अभी-अभी टीवी ओर एक विशाल सभा देखी और भाषण सुना. देश का मिजाज बदल रहा है, जनता बदल रही है. उसे भरोसा है कि उनका नेता उन्हें सही मार्ग पर पर ले जा रहा है. आने वाले चुनाव में बीजेपी पुनः जीतकर आएगी, मोदी जी का आत्मविश्वास यह बता रहा है. 'सबका साथ, सबका विकास' का उनका मन्त्र देश को नई ऊँचाइयों की ओर ले जायेगा. उसने तीन दशक से भी ज्यादा पुरानी उस डायरी में कुछ अगले पन्ने खोले.
कालेज जाने के लिए उसे बस का इंतजार करना होता था, जो कभी -कभी आती ही नहीं थी, इंतजार तब बोझिल लगने लगता था, उस समय यह राज नहीं पता था कि वर्तमान के क्षण में कैसे जिया जाता है. खाली खड़े-खड़े मन कभी अतीत और कभी भविष्य के चक्कर काटता और बेवजह ही थक जाता. दीदी उन दिनों घर के पास ही रहती थीं, कभी माँ और कभी वह रात्रि को उनके घर ही रह जाते, जीजाजी तब विदेश में थे. उस दिन कोहरा घना था, एक कुत्ता ज़मीन पर पड़ा अजीब सी आवाजें निकाल रहा था. एक बुढ़िया भी अक्सर उसे इस रास्ते पर मिलती थी पर उस दिन नहीं थी, शायद ठंड के कारण. कालेज से लौटते समय बस में बहुत भीड़ थी. एक महाशय संसार की झूठी, फरेब से भरी बातों और लोगों पर ठंडी साँस भर रहे थे. लोगों की हृदय हीनता और अनुसाशन हीनता पर भी पर स्वयं जनाब मूंगफली खा खाकर छिलके वहीं बस में ही फेंकते जा रहे थे. सड़क पर करते समय वह एक निजी बस से टकराते- टकराते बची.
रात्रि का समय, पर नीरवता नहीं, माँ रेडियो पर नाटक सुन रही थीं जिसकी आवाजें उसके कमरे तक आ रही थीं. दोपहर को चाची जी आयी थीं उनके घर, उसे हँसी आती थी उनके बोलने के अंदाज पर, अब नहीं आती. जो जैसा है वैसा ही स्वीकारने की कला जो तब नहीं सीखी थी. गोर्की की एक कहानी उसने उस दिन पढ़ी थी, जिसमें ‘गरीब लोग’ का जिक्र जिस तरह हुआ है, उससे भी हँसी आ गयी, वह उसे खत भेजता है, वह उसे भेजती है. वाह ! दोस्तोव्यस्की पर सारिका का विशेषांक पढ़कर कोफ़्त हुई थी उसे. व्हाइट नाइट्स का कितना असुंदर अनुवाद किया है, मात्र शब्दानुवाद. मूल पढ़कर तो वह पागल ही हो गयी थी पर सारिका में पढ़ा तो उसका सौवां हिस्सा भी मजा नहीं आया.
रविवार को सोहराब मोदी की मशहूर फिल्म 'पुकार' देखी सबके साथ. इंसाफ प्रेम पर कुर्बान नहीं हो सकता. उसको ठुकरा सकता है. इंसाफ इंसाफ है, वह आँखें मींच कर चलता है, वह चेहरे नहीं पहचानता, यह तब की बात थी, गुजरे वक्त की, क्या आज भी ऐसा है ? आज तो पैसे के बल पर इंसाफ को खरीदा-बेचा जा सकता है, जाता है.
जब आदमी अकेला अनुभव करता है, वह सृजन कर सकता है. जब उसका एकांत भंग कर दिया जाता है, तब वह सृजन नहीं कर सकता, क्योंकि अब वह प्रेम का अनुभव नहीं करता. सभी सृजन प्रेम पर आधारित हैं. - लू शुन, उसे इस लेखक के बारे में आज भी कुछ नहीं पता, उसका यह विचार कहीं पढ़ा तो लिख लिया।
तीन दशकों से भी अधिक का सफर... उनके विवाह की सालगिरह है. जून शहर से बाहर गए हैं. आज दोपहर एक अनोखे अतिथि को भोजन खिलाया. ज्ञान और नीति, दोनों पर एक कहानी लिखी जा सकती है. एक बिहार का है दूसरी असम की. दोनों की पहचान फेसबुक पर हुई और दोनों के भीतर आध्यात्मिक, सेवा और समर्पण की भावना प्रबल है. नायक पेड़ों को भी नाम से बुलाता है और जीवन में एक उच्च लक्ष्य को लेकर चल रहा है. नायिका उसके प्रति श्रद्धा का भाव रखती है, उसके लक्ष्य में पूरे मन से सहयोग कर रही है. अपने परिश्रम से कमाई धन राशि का एक विशाल भाग वह उसके ज्ञान मन्दिर में दान करना चाहती है. अपने परिवार व समाज का आक्षेप सहकर भी वह यह कार्य करना चाहती है. ऐसे लोग ही समाज को दिशा देने वाले होते हैं.
बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteपर्यावरण दिवस की बधाई हो।
स्वागत व आभार !
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार (06 जून 2020) को 'पर्यावरण बचाइए, बचे रहेंगे आप' (चर्चा अंक 3724) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
*****
रवीन्द्र सिंह यादव