बचपन से लेकर आज तक कई बार इस घर में आना हुआ है और हर बार
दीदी ने प्रेम से स्वागत किया है. मेज पर ढेर सारे व्यंजन और आग्रह करके खिलाना.
जीजाजी भी उतना ही ध्यान रखते हैं. बड़ी भांजी भी अपनी बेटी के साथ आई हुई थी. आज
दोपहर बारह बजे वे उत्तराखंड की राजधानी के लिए चले, ट्रैफिक जाम के कारण दो बजे
की बजाय साढ़े तीन बजे यहाँ पहुँचे. भोजन के पश्चात बड़ी बुआ से मिलने गये. चचेरी
बहन व उसकी बिटिया भी मिली, पुत्र बड़ा हो गया है, सो नहीं आया. मौसम यहाँ ठंडा है
पर घर बंद है सो भीतर ठंड का अहसास नहीं हो रहा है. छोटे भाई के कई रूप आज देखने
को मिले, सहज और आनंदी भी, परेशान और शिकायती भी. परमात्मा सारे विरोधों को
स्वीकार करता है. पिताजी ने सुबह अपने हाथों से चाय बनाकर दी, कल रात को बिस्तर
लगाया. उनकी उम्र में इतना ऊर्जावान और प्रेम से भरे रहना आश्चर्य की बात है !
होटल के इस शांत कमरे में
बैठकर लिखना एक सुखद अनुभव है. एयर कंडीशनर की आवाज के अलावा कोई ध्वनि नहीं है.
कमरे का तापमान न ज्यादा है न कम. बाहर लॉन में अब धूप चली गयी है, ठंडी हवा है और
पहाड़ों पर सफेद कोहरे का आवरण छा गया है. आज सुबह साढ़े दस बजे वे दीदी के घर से
रवाना हुए और पौने दो बजे मसूरी के इस सुंदर स्थल पर पहुँच गये. लम्बी गैलरी से चलते
हुए कमरे तक, फिर सामान रखकर टैरेस पर, जहाँ धूप में बैठकर भोजन का आनंद लिया.
उसके बाद दूर तक फैले सुंदर बगीचे और बच्चों के पार्क में घूमते हुए सुंदर दृश्यों
की तस्वीरें उतारीं. जून को रजिस्ट्रेशन के लिए जाना था, वह यहाँ एक कांफ्रेस में
भाग लेने आये हैं. वह कमरे से बाहर बने लॉन में कुछ देर बैठकर आशापूर्णा देवी की
पुस्तक ‘चैत की दोपहर में’ पढ़ती रही, एक छोटा सा नंग-धड़ंग बच्चा जिसकी माँ को
मसूरी में मोच आने से व्हील चेयर पर आना पड़ा था, खेल रहा था और पौधे उखाड़ रहा था. बाद
में उसे डांटने पर जोर-जोर से रोने लगा. बाहर ठंड बढ़ जाने पर वह कमरे में आ गयी,
केतली में पानी गर्म किया एक कप काफी बनाई. पिताजी से फोन पर बात की. दीदी का व्हाट्सएप
पर वीडियो कॉल आया. और अब उसके पास समय ही समय है. चाहे जो लिखे या पढ़े. चाहे तो
बाहर घूमने भी जा सकती है, पर ठंड अवश्य ही बढ़ गयी होगी. ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों पर बने
मकान तथा नीचे गहरी घाटियों में घने जंगल, बहर का दृश्य बहुत सुंदर है. उसने
दीदी-जीजाजी, जून, छोटे भाई-भाभी, पिताजी, बड़े भाई, मंझले भाई-भाभी सभी के लिए उपजे
मन के भावों को छोटी-छोटी कविताओं में पिरोया. सबसे मिलकर जो ख़ुशी भीतर उपजी थी
उसी को शब्दों में ढाल दिया तो ख़ुशी कम होने के बजाय और भी बढ़ गयी. ख़ुशी का गणित
ही कितना अलग है, यह बांटने से बढती है. ऐसे ही दुःख भी बांटने से बढ़ता ही है, उसे
तो चुपचाप हृदय में रख लेना होगा.
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