आज दोनों बहनों से बात हुई, छोटी बहन दुबई जा रही थी, उसके पतिदेव
को ओमान जाना था. इसी महीने उसके विवाह की वर्षगांठ है. बाईस वर्ष हो गये उनके
विवाह को, कार्ड भेजा है. बड़ी के यहाँ खूब वर्षा हो रही है. उन्होंने कहा, उसके
जीवन की कहानी पढ़कर उनकी उसके बारे में जो धारणा थी वह टूट रही है. वे अपनी कल्पना
से ही किसी के बार में धारणाएं बना लेते हैं, सत्य का उससे कोई संबंध नहीं होता, उसने
सोचा उन्हें एक पत्र लिखेगी. जून आज लंच पर नहीं आये, सुबह सात बजे गये थे शाम सात
बजे ही आएंगे. सुबह कहा, वह जीत गये, कल उन्होंने ऑफिशियल पार्टी में जूस पीया. अब
सत्संग का असर हो रहा है, गुरू का रंग चढ़ रहा है. सुबह साधना भी करते हैं. आसक्ति
ही दुःख का कारण है. आसक्ति से प्रमाद होता है, प्रमाद से मद, मद से अहंकार और
अहंकार दुःख का भोजन है. आसक्ति मिटने के लिए भीतर का आनन्द मिलना ही एकमात्र शर्त
है. आसक्ति के कारण ही कामना उपजती है, कामना यदि पूरी हुई तो लोभ पैदा होगा और न
हुई तो क्रोध. परमात्मा से मिलने में रुकावट कामना ही तो है. प्रेम के जिस धागे
में यह जगत पिरोया हुआ है, उसे ही परमात्मा को प्रकट करने में सहायक बनाना है. आज
क्लब की एक सदस्या से मिलने गयी, उनके लिए विदाई कविता लिखनी है.
अभी–अभी पड़ोस में
रहने वाले ‘आर्ट ऑफ़ लिविंग’ के टीचर से मिलने गयी, आने वाले मंगलवार को गुरुपूजा
करवानी है. कुछ लोगों को निमन्त्रण भी देना है. आज ठंड फिर बढ़ गयी है, उत्तर भारत
में भी कड़ाके की ठंड पड़ रही है. उसे लगता है वे कुछ नहीं होकर अर्थात खाली होकर ही
पूर्णता का अनुभव कर सकते हैं. जीवन की यात्रा में उस परम का अनुभव ही एकमात्र सार्थक
अनुभव है, पर उसके लिए मन को छोटे-छोटे स्वार्थों से ऊपर उठाना होगा. अप्रमत्त,
अप्रमादी बने बिना साधना में प्रगति नहीं हो सकती. कर्मठ, कर्मशील ही भीतर का
राज्य पा सकते हैं. जून आज दिल्ली गये हैं, शाम का वक्त है, उसके पास दो घंटे हैं,
कुछ पढ़-लिख कर ध्यान करने वाली है.
कल शाम मन ठहर ही
नहीं रहा था, देर तक पढ़ती रही फिर टीवी देखा. वे जो भी चाहते हैं उसका विपरीत साथ
चला ही आता है, बिन बुलाये मेहमान की तरह. वे प्रेम तो चाहते हैं पर घृणा को जो
साथ ही चली आती है, दबा लेते हैं, वही विकार बनकर प्रकट होती है. इसलिए बुद्ध कहते
हैं, इच्छा ही दुःख का कारण है. सम्मान की आशा रखने वाले को अपमान के लिए तैयार
रहना ही चाहिए. जीवन दो पर टिका है. महाजीवन दो के पार है. पिताजी ने स्वीपर को
सफाई के सिलसिले में कोई बात कहनी चाही तो उसने उन्हें टोक दिया, बाद में लगा ऐसा
नहीं करना चाहिए थे. उन्हें बात करने के लिए कोई तो चाहिए. उसका काम तो दिनभर मौन
रहकर भी चल जाता है. शब्दों को लिखकर ही जो काम हो जाता है, फिर बोलने से सब गलत
हो जाता है. कल गणतन्त्र दिवस है, एक छोटी सी कविता लिखी. सकारात्मक भावनाओं की
ज्यादा जरूरत है आज वैसे ही वातावरण इतना बोझिल है..गुलाब के तीन बड़े से फूल खिले
हैं, अपनी शान में झूम रहे हैं, वैसे हवा तो नहीं चल रही है, पर अदृश्य गति है
उनकी जो दिख रही है. पिताजी ने पूरे बगीचे में पानी डाला है, साफ-सुथरा बगीचा अच्छा
लग रहा है. काल चक्र निरंतर बढ़ रहा है, उन्हें उसके साथ चलना है. धर्म की धुरी को
पकड़ अर्थात अपने भीतर उस एक शांत सत्ता को पकड़ कर उन्हें इस परिवर्तनशील संसार में
विहार करना है. जीवन हर जगह है, परमात्मा कण-कण में है, उसका अनुभव करते हुए निर्भार
होकर निष्काम कर्म करना है.
आज पंचायत के
चुनावों के कारण अवकाश है. पिताजी का स्वास्थ्य अब उतना ठीक नहीं है. बड़ी ननद की
बेटी की शादी मई में होनी तय हुई है पर वे जा नहीं पाएंगे, ऐसा कह रहे हैं. कल शाम
माँ के बारे में बहुत सारी बातें उन्होंने बतायीं, जिन्हें वे रिकार्ड करेंगे.
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 27-04-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2624 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
बहुत बहुत आभार दिलबाग जी !
ReplyDeleteसुन्दर
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