परसों
नवरात्र का अंतिम दिन था. वह अस्पताल में थी. टीवी पर माँ दुर्गा की सुंदर
मूर्तियों के दर्शन किये थे. कमरे के बाहर लगातार पानी गिर रहा था, उसी का शोर
नींद आने में बाधा डाल रहा था. लेकिन भीतर रंगों व ध्वनियों का एक अनोखा संसार है,
वहाँ जड़-चेतन का कोई भेद नहीं है, परमात्मा वहीँ है, वहाँ सौन्दर्य है. रात को
देखा, वह गहन गुफाओं से गुजरती है, टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर सहजता से बढ़ती जाती है.
सुंदर दृश्य भी थे और अँधेरे भी, दिव्य लोक भी थे और सामान्य जन भी. कभी सामान्य
जीवन के कितने ही दृश्य दिखे, बड़ी फैक्ट्रियां और लोग, अब ठीक से याद नहीं आता. जब
तक यह हुआ, शरीर का सुख-दुःख कुछ भी याद नहीं रहा. याद रहा तो पानी का स्पर्श,
पानी में सहज तैरकर या उड़कर एक स्थान से दूसरे स्थान पहुंचना.
कल रात्रि अस्पताल के
कमरा नम्बर पांच व बेड नम्बर एक सौ अट्ठारह पर पड़े हुए भीतर कविताएँ फूटतीं देखीं.
रंगों का सुंदर मुजस्मा था. शब्द नहीं हैं जिसे कहने को, हीरों, मोतियों, माणिकों
के अद्भुत सुंदर रंगीन नजारे, फूलों की नदियाँ, खिलते हुए सहस्रदल कमल और चमकता
प्रकाश, तारे, सुंदर ध्वनियाँ, रुनझुन सी आवाजें..ऐसा अद्भुत फूलों का उपवन, खिलते
हुए बैंगनी, गुलाबी, लाल, नारंगी, पीले रंगों वाले फूल, जाने कौन खिला रहा था.
परमात्मा उनके भीतर है, वह इतना सुंदर है सुना था, पढ़ा था, संतों की वाणी सुनी थी,
वह जैसे सच बन कर प्रकट हो रही थी. एक तरफ इतना अपार आत्मिक आनंद, दूसरी तरफ दैहिक
कष्ट. इस जीवन का एक-एक पल रहस्यों से भरा हुआ है. चार दिन अस्पताल में रहने की
बाद आज घर लौटी है. अभी तबियत पूरी तरह ठीक नहीं है. इतनी सारी दवाएं भीतर गयी
हैं, देह को सामान्य होने में वक्त तो लगेगा. जब तक देह साथ दे तभी तक जीवन है.
पिताजी की आवाज दूसरे कमरे से आ रही है, वह उठ गये हैं. जून दफ्तर गये हैं. उसके
कारण सभी परेशान हैं. इन्सान की जीवन यात्रा सुख-दुःख के दो तटों के मध्य बहती है,
द्वन्द्वों से युक्त है यह जीवन. जहाँ से सुख मिला है, दुःख मिलेगा ही. कई दिनों बाद
लिख रही है, अपने ही हाथों को अजीब लग रहा है. पेन से लिखना वैसे भी कम हो गया है.
टाइप ही करती है. शाम तक या कल तक वह भी शुरू कर देगी.
कल रात एक अद्भुत स्वप्न
देखा. वह कहीं जा रही है, लेकिन चलना उसका नहीं हो रहा. मार्ग स्वयं ही चल रहा है,
एक व्यक्ति उसे परेशान करना चाहता है तो एक नजर से ही वह दूर चला जाता है. सामने
विशाल आकाश पर सुंदर बेल-बूटे बने हैं, बचपन में एक स्वप्न में आकाश में बड़े
राजमहल व हाथी देखे थे, वैसा ही स्वप्न था लगभग. आगे जाते ही एक वाहन में सवार चार
व्यक्ति उसे सुनसान सड़क पर अकेले देखकर चिढ़ाने के मूड में आ जाते हैं, वह उन पर
चिल्लाती है फिर गर्दन हिलाती है, एक लड़की वैसा ही करने लगती है तो वे सभी वैसा ही
करते हैं और सम्मोहित होकर वहीं गिर जाते हैं. आगे जाती है तो दूर से कोई पुकार लगाता
हुआ आता है. उसके हाथ जुड़े हैं, मानो वह उसका इंतजार ही कर रहा था. देखती है वह एक
चिड़िया थी, नन्ही सी, जिसके तन पर घाव थे, वह एक हाथ में लेकर उस पर दूसरा हाथ
फेरती है और कहती है वह ठीक हो जाएगी, चिड़िया मानवी भाषा में उससे बात करती है. यह
स्वप्न बताता है अहंकार पहला व्यक्ति था, चार विकार चारों व्यक्ति थे और घायल
चिड़िया उसका मन, जिसे उसे स्वस्थ करना था. लगता है अब उसके जीवन में बड़ा परिवर्तन
होने वाला है. कुछ बदलाव पहले ही शुरू हो गये हैं. जून उसका बहुत ध्यान रख रहे
हैं, शारीरिक दुर्बलता का अहसास कभी-कभी होता है पर मानसिक शक्ति अनंत गुणा बढ़ गयी
है. परमात्मा उसके पोर-पोर में समा गया है, वही तो है, उसके सिवा कुछ है भी कहाँ ?
वह परमात्मा ही ‘वह’ बनकर बैठा है, अब जब वही है तो वही रहे..अब उसके सिवा यहाँ
कोई नहीं है. जो उससे मिलने आएगा वह खाली ही जायेगा, क्योंकि यहाँ ‘अहम्’ नहीं है अब
‘त्वम्’ ही है.
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन बाबू जगजीवन राम और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार हर्षवर्धन जी !
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