आज हफ्तों बाद लिख रही है.
कितना कुछ है मन में जो अनकहा रह गया है. जून के मित्र की पुत्री के विवाह में
सम्मिलित होने गये थे वे बनारस. विवाह सारनाथ में था, रात देर से लौटे, पर बिना
ब्याह देखे, बारात देर से आयी. जून इस बार अपने एक पुराने मित्र से लगभग तीस
वर्षों बाद मिले. ‘गंगा महोत्सव’ देखा और ‘देव दीपावली’ में हजारों दीपकों का
प्रकाश, गंगा का तट जैसे दिव्य आलोक से भर गया था. कितना पैदल चलना पड़ा था, हजारों
की भीड़ घाट की ओर जा रही थी. मुख्य आयोजन स्थल गंगा के पानी में ऊंचे मचान पर बना
था, आरती का मंच अलग था. पिताजी बनारस में रह गये और व बैंगलोर चले गये.
बैंगलोर में नन्हे का घर, वह बहुत परिपक्व लग रहा था इस बार, खुश व शांत भी.
उनका बहुत ध्यान रखा. नया बेड लाया, और भी कई सामान, अलमारी का एक खाना भी उसने
खाली करके रखा था, जैसे वह करती है और बचपन से वह देखता आ रहा है. अपने मित्रों का
भी बहुत ध्यान रखता है. उसे इतनी अच्छी तरह से भोजन परोसते देखना भी अच्छा लगा, चाय
बनाना भी सीख गया है पर चाय पत्ती कुछ ज्यादा डालता है. उसने बताया एक बार घर में
चोर आ गया था तो दौड़ कर उसने उसका पीछा किया, वहीं एक फिल्म भी देखी, ‘लाइफ ऑफ़ पाई’
बहुत पहले किताब पढ़ी थी. प्रकृति के मोहक व भयानक रूप के बहुत सुंदर दृश्य थे.
नन्हे को याद था कि उसने उसे यह कहानी सुनाई थी.
उसके बाद आश्रम में बिताये दिन. बुहारी लगाने की सेवा और वह चमत्कार. गुरूजी
के न होने पर भी उनकी उपस्थति का अहसास. आश्रम के कुत्तों का स्नेह प्रदर्शन,
कोर्स के दौरान आश्रुओं की बाढ़ व नृत्य की छटा..सब कुछ कितना अद्भुत था तब. उस दिन
सुबह उठे तो मन में उत्साह था, आज आश्रम जाना है. दोपहर को टैक्सी बुलाई थी. रास्ते
में अपना निर्माणाधीन घर देखा. आम के एक पेड़ पर अम्बियाँ लगी थीं, सर्दियों में आम
देखकर मन अचरज से भर गया. आश्रम पहुंचे और रजिस्ट्रेशन कराया. उन्हें बुद्धा में
रहना था. कमरे में दो अन्य जन थे. एक महिला भूटान से आई थीं केवल आश्रम देखने,
वैसे वे लोग लायंस क्लब के वार्षिकोत्सव में भाग लेने आये थे. भूटान में आर्ट ऑफ़
लिविंग के प्रति जानकारी ज्यादा नहीं हैं इसके लिए भी चिंतित लगीं. दूसरी गुजरात
की एक नौकरीपेशा युवती थी, जो अकेलेपन के अपने भय से मुक्त होने के लिए यह कोर्स
कर रही थी. जून भी उसी बिल्डिंग में दूसरे कमरे में थे. अगले दिन सुबह तैयार होकर
वे महावीर हॉल पहुँच गये. छह बजे से व्यायाम की कक्षा शुरू हुई. योग शिक्षक संजयजी थे, हंसमुख व प्राणवान
व्यक्ति..पता ही नहीं चला, कैसे समय बीत गया. सेवा काल में विशालाक्षी मंडप में
उसने झाडू लगाया, जैसे अपने घर की सफाई कर रही है ऐसा ही भाव मन में उठ रहा था.
कुछ वर्षों बाद वे जब बैंगलोर में रहेंगे, तब भी वह इसी तरह आश्रम में आकर सेवा का
कार्य करेगी, ऐसे विचार भी मन को आनंदित कर रहे थे. दिन में कोर्स चलता रहा. ध्यान,
संगीत, वीडियो और मध्य में विश्राम. प्रकृति के सान्निध्य में कुछ पल, वे दूर तक
घूमने गये, आश्रम के बाहर राधा कुञ्ज है उसे देखा फिर सुमेरु मंडप भी. पंचकर्म के
स्थल के पास एक झील है, उसके भी दर्शन किये. शाम को अँधेरा होते ही विशालाक्षी
मंडप रौशनी में जगमगा उठा था. वे सामने लॉन में बैठकर उसकी शोभा निहारते रहे, हर
दिन ऐसा ही हुआ, दो दिन दो कुत्ते पास आकर बैठ गये, स्नेह जताते हुए, बिलकुल निकट,
उनकी आँखों में जैसे कोई कुछ कह रहा था, आत्मा की भाषा क्या होती है तभी जाना. फिर
वापसी में गोहाटी में एक सखी के साथ बिताये वे पल. पिताजी ट्रेन से वहीं आ गये थे,
फिर वे सभी मिलकर घर लौट आये, यह सभी कुछ स्मृति पटल पर अंकित हो गया है.
No comments:
Post a Comment