Monday, February 6, 2017

'बोधगया' में बोध गया


परसों रात एक स्वप्न देखा. कितना जीवंत था, लग रहा था जागकर ही देख रही है. ध्वनि इतनी स्पष्ट थी जैसे जागते में होती है. गाना इतना स्पष्ट था और शब्द भी याद थे. कल फिर एक स्वप्न देखा, ये सारे स्वप्न उसके अवचेतन की खबर रखते हैं, देते हैं. उसने अपने अवचेतन के विचारों का प्रक्षेपण जगत पर किया है और तभी जगत उसे वैसा ही दीखता है. उसने पिछले जन्म में या जन्मों में जो कुछ किया है उसका भय भी अवचेतन में विद्यमान है कि कहीं उसके साथ भी वैसा न हो. उन्हें ध्यान में दबे हुए भावों की निर्जरा करनी है ताकि मुक्त हो सकें. स्वयं को जगत के सामने अच्छा दिखाने की कामना, साधना का फल भी भौतिक जगत में नाम तथा यश के रूप में पाने की कामना अहंकार के ही सूक्ष्म रूप हैं. आत्मा में स्थिति हर क्षण नहीं रहती अन्यथा इतनी भूलें नहीं होतीं. आज पिताजी सुबह से बाहर ही बैठे हैं, सारे संबंधों में सूक्ष्म हिंसा छिपी है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है उनका माँ से संबंध. एक-दूसरे को जितनी तरह से हो सकता है परेशान करने के उपाय खोजना ही जैसे लक्ष्य हो, उसके बावजूद वे कैसे इतने उत्साहित रहते हैं, आश्चर्य होता है.

कल पुनः उसने स्वप्न में बाबा रामदेव को देखा, वे उनके घर आए हैं और किसी कार्यक्रम की तैयारी कर रहे हैं, उसका नाम लेकर एक बैग लाने को कहते हैं. बाद में एक स्वप्न वह पुनः पुनः देख रही थी, हर बार पूर्व की कमी को दूर करके, यानि वे अपने स्वप्न स्वयं ही गढ़ते हैं. ध्यान में आज एक सुंदर मोती की माला दिखी..मन कितना रहस्यमय है..चेतना में कितने रहस्य छिपे हैं, साक्षी जो भीतर बैठा है कुछ विचार नहीं करता मात्र द्रष्टा है किन्तु उसके होने मात्र से ही मन, बुद्धि अपना कार्य करते हैं. आज शनिवार है, बाहर से बच्चों की आवाजें आ रही हैं और उसके भीतर अनहद का स्वर फूट रहा है, कितना स्पष्ट सुनाई दे रहा है, यह सुनने वाला भी वही है. टीवी पर सारनाथ में दिया बापू का प्रवचन आ रहा है. भीतर जब तक बोध भी टिका है, तब भी बाधा है. बोध भी जाना चाहिए, ‘बोधगया’ ..इसी का प्रतीक है. भोगों की लालसा, आलस्य, प्रमाद, तम ये सब साधना में विघ्न हैं. आलस्य कुशल कर्म में उत्साह को तोड़ता है, जो विषय नहीं चाहिए उसमें लगना प्रमाद है. विषाद व कमजोरी भी भी विघ्न हैं. कुशल प्रवृत्ति में निरंतर उत्साह बना रहे, यह बुद्ध की एषणा है. कितना अद्भुत ज्ञान है यह !

आज भीतर एक गहरा सन्नाटा है, साक्षी भाव उदित हुआ है, कोई कर्ता नहीं दिखाई पड़ता. नाश्ता ले कर बाहर बगीचे में गई, ठंड शुरू हो गयी है. धूप भली लगती है तन को. वहाँ बैठकर लग रहा था जैसे वह भी अन्य पेड़-पौधों की तरह एक जीव है, देह व आत्मा के बीच का जो सेतु था, जो अहंकार था, वह क्षीण हुआ है शायद गिर ही गया है, इतनी गहन शांति है भीतर, कुछ भी करने का भाव नहीं रह गया है, सब कुछ हो रहा है. सद्गुरू के सम्मुख होती तो वह पहचान लेते..वह कहते यह भी एक अनुभव है, आज से पूर्व न जाने कितने अनुभव आए, एक से बढ़कर एक, सारे खो गये..यह कब तक टिकेगा. वे इतने बड़े महारथी हैं कि सारे अनुभवों को पचा गये..डकार तक नहीं लेते वे. जो करने योग्य है वह प्रकृति करवाए ही जा रही है, पहले डर था कि यदि वे ही नहीं रहे तो उनका काम कैसे चलेगा ! परसों एक सखी का जन्मदिन है उसके लिए अंतिम कविता लिखनी है ! वे लोग यहाँ से जाने वाले हैं.

‘उसने देखते ही मुझको दुआओं से भर दिया
मैंने तो अभी सजदे में सर झुकाया भी नहीं था’


साक्षी भाव कितना मधुर है. कितने अनुभव हुए उसे आजतक लेकिन सब आकर जाने के लिए. यह टिकेगा ऐसा लगता है. भीतर एक शीतलता का अनुभव होता है, जैसे बाहर का मौसम है ठंडा सा, भीतर एक सन्नाटा है जो मिटने वाला नहीं है ऐसा लगता है. उन्हें आज विशेष बच्चों के स्कूल जाना है. जब तक गाड़ी आती है उसे पाठ कर लेना चाहिए.

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