Friday, February 3, 2017

शाम और खामोश पेड़


कल शाम एक सखी की बिटिया से उसके अनुभव सुनकर आनंद आया, उसने सोचा एक कविता लिखकर उसे देगी. रात को मोबाईल पास रखकर नहीं सोयी थी, जून ने फोन किया, वह अधीर हो गये फिर दूसरे फोन पर किया. पिताजी और माँ के बीच नोक-झोंक बढ़ती जा रही है, उसे लगता है यह मोह की पराकाष्ठा है. ऐसे ही लड़ते-झगड़ते सारा जीवन चला जाता है. नवरात्रि का तीसरा दिन है आज, ध्यान में मन लगता है, सद्गुरू कहते हैं, इन दिनों में की गयी साधना का विशेष प्रभाव होता है. एक अन्य सखी के दिए हुए कपड़े व स्वेटर आस-पडोस के बच्चों को बाँट दिए. कुछ कपड़े वे मृणाल ज्योति भी ले जायेंगे. ईश्वर उसके हाथों यह शुभ काम करवा रहे हैं. वह भजन याद आ रहा था, करते हो तुम कन्हैया..मेरा नाम हो रहा है..सचमुच सभी कुछ वही कराता है. आज सुबह स्वप्न था या तंद्रा थी या ध्यान था, उसे अपने भीतर लिखे हुए कुछ वाक्य दिखे. शास्त्रों में कहा गया है कि ऋषियों ने मन्त्र देखे, तभी वे द्रष्टा कहलाये. वे जो भी बुद्धि से लिखते हैं वह उतना प्रभावशाली नहीं होता जितना जो सहज प्रकटता है वह होता है.

माँ को आज अस्पताल जाना पड़ा. उनके पैर में घाव हो गया है. एक सखी ने कहा उनके कपड़े अलग से धोये जाएँ तथा डेटोल में रिंज किये जाएँ. स्नानघर में सीट तथा दरवाजे का हैंडल व नल भी डेटल से पोंछें. उसने पिताजी को भी सजग रहने को कहा कि कहीं उन्हें भी छूत न लग जाये पर वे कुछ और ही अर्थ लगाकर परेशान हो गये. इन्सान अपने सुख-दुःख का निर्माता स्वयं ही है. माँ की मानसिक स्थिति भी ठीक नहीं है. इस समय लेटी हुई हैं. उनके प्रति उसके मन में कोई भाव नहीं जगता, वह कुछ भी समझने की स्थिति में नहीं हैं ऐसा लगता है. उनके भीतर भी उसी परमात्मा की ज्योति है वही जो उसके भीतर है. अपने प्रति भी तो कोई कठोर हो ही सकता है. अस्तित्त्व में जो भी घटता है, वे उससे जुड़े ही हुए हैं. उनके भीतर परम चैतन्य सोया रहता है और वे सारा जीवन दुःख में ही गुजार देते हैं. उसे जगा दें तो भीतर उत्सव छा जाये, जगाना भी क्या कि मन के सारे आग्रह, सारी वासनाएं शांत करके खाली हो जाना है. वह शेष काम स्वयं ही कर लेगा. कल लक्ष्मी पूजा का अवकाश था, शरद पूर्णिमा भी थी. उसके पूर्व पूजा का अवकाश था, समय भाग रहा है.

फिर वही झूला, वही ढलती हुई शाम है.
कई दिनों बाद मिली इस दिल को फुर्सत, आया आराम है
आसमां चुप है सलेटी चादर ओढ़े
पेड़ खामोश है, हवा बंद, नहीं कोई धुन छेड़े
एक खलिश सी है भीतर कोई अपना बीमार है
दुआ के सिवा दे न सकें कुछ ये हाथ लाचार हैं
लो देखो एक कार की रफ्तार से पत्तों में हरकत आयी
हिल-हिल के जैसे भेज रहे उसे दवाई
जीवन है तभी तक तो दिल धड़कते हैं
रोते हैं, हँसते हैं साथ-साथ बड़े होते हैं
दो हैं कहाँ जो कोई असर हो दिल पे किसी बात का
दो हैं कहाँ जो दूजा लगे, अपना सा दर्द है जज्बात का
दुःख कहने से जो भीतर कसक उठती है वह अहम् है..



No comments:

Post a Comment