आज गुरूवार
है, जून अभी भी बनारस में हैं. इतवार को आएंगे. नैनी ने बिना उससे पूछे मिक्सी इस्तेमाल
की, उसे डांटा पर खुद को ही अच्छा नहीं लगा. उसे कुछ देकर प्रसन्न किया. जून ने
कहा, एक सखी ने उसे फोन करके ज्योतिष की किताब लाने को कहा है, सुनकर संस्कारवश अच्छा
नहीं लगा, कितने गहरे संस्कार हैं, अवचेतन काम करता है तो चेतन कुछ भी नहीं कर पाता,
पर अगले ही पल सजग होकर देखा तो वह सामान्य हो गयी. पिताजी को बताया, उन्हें भी
ज्योतिष पर विश्वास नहीं है.
आज भी एक
बार देह में अप्रिय संवेदना का अनुभव होने पर साक्षी भाव बनाये रखने पर तत्क्षण मन
की समता प्राप्त की उसने. विपश्यना कितना अद्भुत ज्ञान है. सत्य ही एकमात्र उनका
अपना है, ऋत कहें, नियम कहें, हुकुम कहें, धर्म कहें या आत्मा कहें, ब्रह्म कहें,
प्रेम, आनन्द, शांति या जो भी नाम दें, स्वयं के बन्धु तो यही हैं, एक हैं पर अनेक
हुए हैं. जीव ईश्वर का अंश है, वह उसी का है, उस जैसा है. जून परसों आ जायेंगे, आज
दोपहर उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं था.
कल नन्हे
से उसने उन विषयों पर बात की, जिनसे मन परेशान था. उसे अपने बारे में कोई संदेह
नहीं है. वह उन बीस प्रतिशत लोगों में से है जो किसी भी पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं
होते. उसको भी परमात्मा राह दिखायेंगे. यहाँ हर एक को अपना मार्ग स्वयं ही चुनना होता
है. अपने कर्मों का फल हरेक को स्वयं ही भोगना होता है. प्रियजनों को दुःख होता है
पर वह आसक्ति के कारण, जहाँ राग है, वहाँ दुःख है, जहाँ अहंकार है, वहाँ दुःख है,
जहाँ ईर्ष्या है, वहाँ दुःख है. वह कुछ भी नहीं है, इस बात का अनुभव उस दिन किसी
अन्य के द्वारा हुआ तो वह क्रोध से भर गयी. ध्यान में यह कहना कि वह कुछ भी नहीं
है, शांति से भर जाता है. यह दोहरापन क्यों ? उसे अपने होने के लिए भी दूसरों से
सर्टिफिकेट लेना पड़े यह तो निर्धनता हुई, अभाव हुआ और यही तो दुःख है. कोई कह दे,
वह अच्छा है, इसकी फ़िक्र में ही लोग क्या-क्या किये जाते हैं, साधारण होना कोई
नहीं चाहता, सब असाधारण होना चाहते हैं. वह एकांत में इसलिए प्रसन्न रहती है
क्योंकि वहाँ कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं है. लोगों के बीच जाकर उनसे व्यवहार में आकर
ही किसी को पता चलता है कि वह कितना पक गया है. अभी बहुत दूर जाना है, अनुभव को
निजी बनाना है, बुद्धि के स्तर पर, आत्मा के स्तर पर उस परमात्मा से एक होना है.
अगले माह
उन्हें यात्रा पर जाना है. इक्कीस मार्च से सात अप्रैल तक, जाने से पूर्व एकाध दिन
तैयारी में और आने के बाद एकाध दिन घर ठीकठाक करने में, यानि कुल बीस दिन. कल रात
को कविता नहीं लिखी, भाव भीतर उमड़ रहे हैं. फागुन आ गया है, आम के बौर की मदहोश कर
देने वाली खुशबू नासापुट में भर रही है, रूद्र पलाश खिल गया है, पलाश अभी तैयारी
में जुटा है. परमात्मा चारों ओर बिखरा है, उसकी छुवन भी मोहक है. माँ की सरदारनी सखी
के लिए भी एक कविता लिखनी है. दोनों भाभियों का फोन आया है, दोनों उनके आने को
लेकर उत्सुक हैं. टीवी पर सिन्धी साईं ईश्वर की महानता की चर्चा कर रहे हैं, वही
तो है, वही है..बस वही है...कल से उसका गले में खराश है, पर स्वयं वह देह नहीं है,
यह भाव दृढ़ होने से कुछ भी अनुभव नहीं हो रहा है ! हवाएं उसका क्या बिगाड़ सकती
हैं, यह माया उसका क्या बिगाड़ सकती है. वह निस्पृह, निसंग, निष्क्रिय, अनादि, अनंत
चेतना है ! वह निरंजन है, अलख है, कोई वस्तु कोई विचार, कोई परिस्थिति उसे छू नहीं
सकती !
वर्धा
में बापू की रामकथा का तीसरा दिन है, विनोबाजी को केंद्र में रखकर वह यह कथा कह
रहे हैं. उनकी चेतना को प्रणाम करते हुए वह कथा का आरम्भ कर रहे हैं. दादा
धर्माधिकारी का भी भाषण हुआ, बनारस में वर्षों पहले वह उनसे मिली थी, उसकी डायरी
में एक वाक्य उन्होंने लिखा था, “बने बनाये राजपथ छोड़ो, नव राहों का सृजन करो”
बहुत बाद में उसने इसी पर एक कविता भी लिखी.
उस दिन
मोरान में जो भाव उसके मन में उठा था गुरू पूजा का, वह कल फलीभूत होने वाला है.
सभी को निमंत्रण दे दिया है. कल शाम जून ने सूची बना ली थी, आज भोज का सामान भी ले
आएंगे व पूजा का सामान भी. साढ़े दस बजने को हैं, बापू मानस का पाठ कर रहे हैं. मार्च
आ गया है, पर दिसम्बर जैसा माहौल है.
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "मनमोहक मनमोहन - ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार !
ReplyDeleteसुंदर
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