फिर तीन
दिनों का अन्तराल ! कल एक पुरानी डायरी पढ़ी, नन्हा तब छह महीने का था, तब से अब तक
कितना वक्त गुजर गया है लेकिन भीतर भीतर कुछ ऐसा है जो जरा भी नहीं बदला. कल से
माँ का इलाज पुनः शुरू हुआ है, डिब्रूगढ़ से एक आर्थोपेडिक्स आए थे, उन्होंने ही कई
सुझाव दिए. सुबह से मन स्थिर नहीं है, साक्षी भाव से देख तो रही है पर भीतर विचार
हैं. कल शाम को एक सखी की जन्मदिन की पार्टी में गरिष्ठ भोजन किया फिर घर आकर टीवी
देखा, ऊलजलूल डायलॉग सुने, शिवानी को नहीं सुना, फिर छोटी बहन के लिए कविता लिखने
का प्रयास किया.
कल शाम
जून बहुत दिनों बाद उदास हुए और उसके भीतर भी हलचल मच गयी. अब एक बूंद भर भी
असहजता नहीं सही जाती, भीतर शांति का एक साम्राज्य बनता जा रहा है जिसपर अशांति का
एक कण भी ठहर नहीं सकता. आत्मवत् सबको देखने का यह परिणाम होता है, समानुभूति का
यह परिणाम होता है, उनके कारण इस ब्रह्मांड में किसी को भी दुःख न पहुंचे,
पहुँचेगा तो पहले उन्हें भी कष्ट देगा. अपने ही बचाव के लिए उन्हें सदा मधुर वचन बोलने
चाहिए. मानव स्वयं ही अपनी आत्मा पर दाग लगाता है, शरीर को रुग्ण करता है.
आज केवल ‘वही’
है, ‘उसका’ कहीं पता नहीं है, व्यर्थ ही इतना बोझ सिर पर डाला हुआ था. अभी-अभी
जालोनी क्लब की पत्रिका के लिए कुछ लिखने का अनुरोध आया है. वह अपनी कुछ कविताएँ
ही देगी, जो किसी भावपूर्ण क्षण में लिखी गयी थीं. यह देखो, ‘वह’ तो पुनः जिन्दा हो
गया, पुराने संस्कार जाते-जाते ही जायेंगे. सफाई का कार्य चल रहा है. ड्राइंग व
डाइनिंग रूम में आज पेंटिंग होगी, कल तक सभी काम पूरा हो जायेगा. जीवन की पहेली आज
सुलझती हुई नजर आ रही है. जब तक वे हैं तब तक परमात्मा दूर खड़ा रहता है, वे सीट
खाली करते हैं तो वह आ विराजता है. अति साधारण होता है वह, सामान्य जन से भी भी
सामान्य, अति सामान्य !
नया सप्ताह
आरम्भ हुआ और नया महीना भी, उसे खबर ही नहीं हुई. शनिवार से जो अस्वस्थता आभास दे
रही थी, कल शाम तक खिंचती चली गयी, अभी भी आँखों में दर्द है, परमात्मा उसके साथ
है सो छोटी-मोटी या बड़ी भी बीमारी का कोई भय नहीं है. भीतर समता बनी रहती है,
विशेष कुछ हो या न हो, कर पाए या न कर पाए, एक समरसता सहज ही रहती है. जून कल
देहली चले गये हैं, वहीं से बनारस भी जायेंगे. एक बहुत प्रिय बचपन के मित्र की
बिटिया के विवाह में सम्मिलित होने. मंगल को लौटेंगे. माँ अस्पताल में ही हैं, पिताजी
भी उनके साथ. पता नहीं और कितने दिन रहना होगा. वह रोज ही वहाँ जाती है कभी-कभी
नैनी को साथ लेकर, जो उन्हें तेल आदि लगाती है और बाल बना देती है. कल विश्व
विकलांग दिवस है, उसे जाना है. मौसम आज बदली भरा है.
अभी भीतर
भय शेष है, आज सुबह एक विचार आया कि इतने दिनों अकेले रही कोई और होता तो सोचता,
तभी लगा जैसे कोई है, पल भर को भय हुआ पर फिर समझ में आया स्वप्न है, उनके स्वप्न
भी वे स्वयं ही गढ़ते हैं. इस समय उसका मन उदास है. आज वर्षों बाद यह बात उसने लिखी
है, कारण है उसकी मूर्खता, मूर्खता के अलावा कोई कारण आज तक किसी की उदासी का न
हुआ है और न होगा कभी, उसकी लापरवाही भी कह सकते हैं, अकर्मण्यता भी, फोन कभी नहीं
उठाती समय पर और फोन खराब है इसकी खबर भी नहीं रखी. दो दिन से इंटरनेट डाउन है,
ध्यान नहीं दिया. जून को बताया तक नहीं. आज वह वापस आ रहे हैं. इतने दिनों तक ढीले
कपड़े पहनने के कारण उसे पता ही नहीं चला कि कब पेट का घेरा इतना बढ़ गया.
कल जो
भावदशा थी वह भी गुजर गयी और जो आज है वह भी गुजर जाएगी. भीतर देखने वाला साक्षी
ज्यों का त्यों रहेगा पर वह द्रष्टा कोई अलग नहीं है, शांत हुआ मन ही वही साक्षी
है. वह कोई अलग हो भी कैसे सकता है. अहंकार ही उसे अलग मानता है, वासना है तो
अहंकार बचा ही हुआ है, अहंकार बचा है तो उदास होना स्वाभाविक है. देह ऐसी हो, मन
ऐसा हो, घर ऐसा हो, रिश्तेदार ऐसे हों, ये सभी कामनाएं ही उन्हें बांधती हैं. चाह
ही बांधती है और चाह पूर्ति में कोई बाधक हो तो क्रोध आता है. उनकी इमेज खराब होती
है तो क्रोध आता है. देह बेडौल होने लगती है तो क्रोध आता है. बुढ़ापा नजदीक आता है
तो क्रोध आता है. सबके पीछे है अहंकार व कामना और कुछ भी नहीं ! प्रमाद व आलस्य
इसकी जड़ में है, मोह, राग, द्वेष इसके मूल में हैं. मोह से प्रमाद होता है, आलस्य
उन्हें कहीं का नहीं छोड़ता. नींद मृत्यु की निशानी है, जागना ही मुक्ति है !
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