सूर्य की किरणें इस डायरी को छू
रही हैं और उसके भीतर भी भर रही हैं ऊष्मा, ताप और सृजन करने की क्षमता ! इस क्षण
और आज सुबह से हर क्षण अपनी अनंत क्षमता का अहसास उसे अनुप्राणित किये हुए है,
उनके भीतर अपार सम्भावनाएं हैं. उनमें से हरेक ब्रह्म का अधिकारी है, तृप्त है,
आनन्द से भरा है और अपने भीतर का प्रेम व शांति इस जगत के लिए बाँट सकता है. दोनों
हाथों से उलीचे तो भी खत्म न हो इतना वह अपने भीतर भरे है ! आज वर्षों पूर्व लिखी
एक कविता हिन्दयुग्म में भेजी. सुबह उठी तो एक स्वप्न चल रहा था, जागते ही तिरोहित
हो गया. ऐसे ही तो जीवन में आने वाली हर परिस्थिति एक स्वप्न ही है, जागकर देखें
तो एक खेल ही लगता है सब कुछ. परसों मृणाल ज्योति में बीहू का उत्सव है, जून और
उसे बुलाया है. सूर्य धीरे-धीरे अस्ताचल को जा रहा है, शाम के सत्संग की तयारी
उसने कर ली है. एक फोन की उसे प्रतीक्षा थी, नहीं आया, एक बच्ची का फोन, हिंदी का
कक्षा कार्य करने में उसे सहायता चाहिए थी. परसों एक संबंधी का जन्मदिन है, फेसबुक
ने याद दिलाया, उसने एक कविता लिखी. आज उसने गुरु माँ द्वारा ‘गुरू गोविन्द सिंह
जी’ के प्रकाशपर्व पर जाप साहिब का पहला भाग सुना. उन्होंने कहा ‘मानव मन यदि
समाधि का अनुभव कर ले तो भी उसके भीतर अदृश्य इच्छाएं रहती हैं, जो समाज के हित में
लगने के लिए प्रेरित करती हैं. सारी कामनाओं का त्याग कर ऋषि जंगल में जाता है पर
पूर्ण सत्य का साक्षात्कार कर पुनः समाज में लौटता है. समाज को कुछ देने के लिए,
ऊर्जा तो उसके भीतर पहले की तरह ही है बल्कि कहीं ज्यादा’. उससे भी परमात्मा कुछ
कराए इसके लिए वह तैयार है. उसकी शक्ति व्यर्थ न जाये, उसकी श्वासें इस जगत के लिए
हों. उसने सद्गुरु से प्रार्थना की, जो सदा ही उसकी प्रार्थना का उत्तर देते आये
थे, उसके पास जो कुछ भी, उस पर सबका अधिकार हो..प्रकृति जिस तरह लुटाती है, संत
जिस तरह लुटाता है, उसके अंतर का प्रेम भी सहज ही प्रवाहित होता रहे !
आज सुबह समाधि के लिए मन को
पंच क्लेशों से मुक्त करने की बात सुनी. अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष व अभिनिवेष
ये पांच क्लेश उनके मन को पंचवृत्तियों में भटकाते रहते हैं. पंच वृत्तियाँ
(अनुमान, आगम, प्रत्यक्ष), स्वप्न, निद्रा, निरुद्द्ध और एकाग्र ! इस क्षण उसका मन
समाहित है, फोन आ गया सो ध्यान से उठना पड़ा. कल लोहड़ी है. तैयारियां हो रही हैं.
उत्सव उनके एकरस जीवन में नया रंग भरते हैं. शाम को वे आग जलाएंगे और स्वयं तथा
मेहमानों के लिए खिचड़ी, आलू, खट्टी-मीठी चटनी बनायेंगे. जून ढेर सारा सामान जो
अहमदाबाद से लाये थे, वह भी रहेगा तथा गाजर का हलवा. वही लेकर वह मृणाल ज्योति भी
जाएगी. दीदी, तथा छोटी बहन भी अपने-अपने घरों में यह उत्सव मना रहे हैं. मकर संक्रांति
पर लिखी कविता भी उसने सभी को भेजी.
आज कितने सुंदर शब्द सुने –
केसर, कस्तूरी, पुष्प और
स्वर्ण सभी को भाते हैं, वैसे ही संतों की ज्योति भी सभी को भाती है.
घी और रेशमी वस्त्र सभी को
भाते हैं, भक्त भी सभी को प्रिय होते हैं.
मन प्याला है और परमात्मा
के नाम का रस उसमें भरा है.
मृत देह की चषक बनी ज्यों
मृत मन का बनता प्याला !
तन में रंग लगा माया का,
प्रेम का रंग चढ़े फिर क्योंकर ?
चेतनता आरूढ़ जीव पर, जीव
चढ़ा अहंकार पर.
अहंकार है बुद्धि ऊपर,
बुद्धि मन पर रही विराजे.
मन चलता है प्राण रथों पर,
प्राण इंद्रियरूपी रथ पर.
इन्द्रियां देह पर करें
सवारी, देह भूतों से बनी हुई है.
कभी गगन में चमके दिनकर,
कभी घोर अँधेरा छाता.
कभी धुआं, कोहरा धुंधलका,
कभी चमकती बिजली पल-पल.
रिमझिम बादल बरसा करते, कभी
बर्फ के पत्थर पड़ते.
तरह-तरह के शब्द गरजते
किन्तु नभ ज्यों का त्यों रहता.
बाढ़ की विभिषका आये, भूचाल
भूमि थर्राए.
कितनी उथल-पुथल हो जाये पर
वह निर्विकार सदा सम.
ऐसे ही उस परम सत्ता में
कुछ भी अंतर आ नहीं सकता.
टुकड़ों टुकड़ों में कितना कुछ है आपके पास बांटने को, साझा करने को... एक असीम शान्ति का एहसास होता है यहाँ आकर...!
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