आज बसंत पंचमी है. सुबह मृणाल
ज्योति में पूजा में सम्मिलित हुई और दोपहर बाद एक सखी के यहाँ हवन में, पहले सत्य
नारायण की कथा भी थी. बच्चों की कहानी सी लगती है. भगवान भी बात-बात पर रूठ जाते
हैं, फिर प्रसन्न हो जाते हैं, भोले-भाले लोगों के भगवान भी तो वैसे ही होंगे,
लेकिन पूजा करने से बाहरी वातावरण सात्विक बन जाता है. मन के भीतर भी तरंगें
पहुंचती हैं और वातावरण सात्विक होने में मदद मिलती है. हर कोई अपनी-अपनी समझ से
काम करता है, जो जैसा करता है वैसा ही भरता है. यदि कोई घबरा कर कोई शब्द बोल रहा
है तो वह घबराहट का संस्कार ही बना रहा है और यदि कोई दूसरों के व्यवहार पर कोई
निर्णय दे रहा है तो वह भी एक संस्कार बना रहा है. आज सुबह उसे बिजली के उदाहरण से
आत्मा, मन व बुद्धि का भेद स्पष्ट हुआ. आत्मा जिसके साथ जुड़ जाती है उसी का रूप धर
लेती है. जैसे विद्युत हीटर के साथ जुड़कर गर्मी का, एसी में ठंड का, टीवी में आवाज
व चित्र का तथा विभिन्न उपकरणों में विभिन्न रूप, वैसे ही उनके भीतर की ऊर्जा
भिन्न-भिन्न भावों, विचारों तथा धारणाओं के रूप में व्यक्त होती है. जब यह
परमात्मा के साथ जुड़ जाती है तब उसी के रूप में स्वयं को जानती है. शेष सब बाहर की
यात्रा में काम आते हैं और अंतिम भीतर की यात्रा में !
आज ध्यान में सुंदर अनुभव
हुआ. जब, वे जब चाहें तब अपने-आप में स्थित हो पाते हैं तभी मानना चाहिए कि साधना
में गति हो रही है. मन में यदा-कदा इधर-उधर के व्यर्थ संकल्प उठते हैं पर वे सागर
में उठी लहर, बूंद या बुदबुदों से ज्यादा कुछ नहीं. सागर का उससे क्या बिगड़ता है,
उसी की सत्ता से वे उपजे हैं और उसी में लीन हो जाने वाले हैं. इस ज्ञान में स्थिति
बनी रहे तो मन व बुद्धि से मैल की परत छूटने लगती है, झूठ बोलने का जो संस्कार है,
जड़ता का जो संस्कार है, अहंकार का जो संस्कार है और ईर्ष्या का जो सबसे गहरा संस्कार
है, इन सबसे मुक्त होना है. इन्हें मानकर यदि स्वयं की सत्ता दी तो मुक्त होना
असम्भव है. सद्गुरु कहते हैं कि माने सत्य ही उसका संस्कार है. उत्साह व जोश ही
उसके भीतर कूट-कूटकर भरे हैं. इर्ष्या तो उसे छू भी नहीं गयी, क्योंकि उसे ज्ञात
हो गया है कि नदी-नाव संजोग की तरह लोग आपस में मिलते हैं, मोह के कारण संबंध बना
लेते हैं, फिर बिछड़ जाते हैं. उनके साथ मृत्यु के बाद कोई जाने वाला नहीं है, केवल
परमात्मा ही उनके साथ रहेगा और रहेंगे उनके कर्म. आज वर्षा के कारण पुनः ठंड हो
गयी है. जून को देहली जाना है. चार दिन बाद पिताजी को साथ लेकर आयेंगे. एक सखी ने
बगीचे में लगाने के लिए झूला माँगा है, प्रतियोगिता में भाग ले रही है. उनके बगीचे
में फूल अब कम हो गये हैं. माँ उठकर बाहर जा रही हैं, फिर लौट आई हैं, शायद देखने
गयीं थी, पिताजी बैठे हैं या नहीं.
बादल आज भी बने हैं, ठंड बढ़
गयी है. शाम को जो कविता लिखी थी, ज्यादा लोगों ने नहीं पढ़ी, आत्मा को चाहने वाले
ज्यादा नहीं हैं. सुबह एक स्वप्न देखकर नींद खुली. एक सखी का भाई घर से भागकर यहाँ
आया है. रातभर उनके बरामदे में लिनन बॉक्स में बैठा रहा. सुबह जैसे ही वह दरवाजा
खोलकर बाहर आयी तो उसने बताया. स्वप्न कितना सत्य प्रतीत हो रहा था. रात भी मन ने
एक स्वप्न बुना और तभी समझ में आ गया यह स्वप्न है. इसी तरह उनका जीवन भी एक
स्वप्न से ज्यादा कुछ नहीं है, उनका अतीत तो स्वप्न बन ही चुका है, भविष्य एक
स्वप्न है ही पर वर्तमान का यह दौर भी स्वप्न ही है. अब कोई पढ़े या नहीं क्या फर्क
पड़ता है क्योंकि सोये हुए लोगों की बात का क्या आदर और क्या अनादर, सत्य इस सबके
पीछे छिपा है. झलकें मिलने लगी हैं पर पूरा सूर्य अभी नजर नहीं आया है, यह कामना
भी छोडनी होगी, साधो सहज समाधि भली !
आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति लाला हरदयाल जी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।
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