आज कई दिनों बाद लिख रही है.
पिछले पांच दिन फिर डायरी नहीं खोली, आज पिताजी वापस चले गये. उनके बारे में कितनी
बातें उन्हें ज्ञात हुईं. देश के विभाजन के समय उनकी उम्र मात्र पन्द्रह-सोलह साल
की थी, हाई स्कूल में ही थे. पाकिस्तान से आकर वे लोग फाजिल्का में रहे. गुजारे के
लिए पहले मूंगफली बेचीं, एक डाक्टर के पास कम्पाउडर का काम किया, फिर उन्हें तहसील
में एक नौकरी मिली. उसके बाद ही डाकविभाग में काम मिला, साथ-साथ पढ़ाई भी करते रहे.
कई बार प्रमोशन हुआ और उच्च पद से रिटायर हुए. उनका स्वभाव शांत है, सीखने की ललक
अभी तक है. आत्मा की खोज है, आत्मनिर्भर हैं, मोह से परे हैं, संगीत का शौक है और
भी न जाने कितने गुण हैं, उनके लिए वह एक कविता लिखेगी ! मौसम अच्छा है, धूप खिली है. कल बाबा रामदेव
आये थे डीपीएस स्कूल के मैदान में उनका कार्यक्रम हुआ. वे गये थे. जोश से भरा उनका
भाषण हजारों लोगों ने सुना. इस समय पिताजी बाहर बैठे हैं, माँ कमरे में हैं, दोनों
चुपचाप हैं. वृद्धावस्था में कैसी शांति छा जाती है, सारी दौड़-धूप समाप्त हो जाती
है, जीवन ठहर जाता है. उसका जीवन भी अपेक्षाकृत शांत हो गया है. ध्यान के बाद की
शांति तो अनुपम है ही !
आत्मभाव में स्थित रहना,
जितना सहज साधना करते समय होता है, उतना ही सहज मनोभाव में रहना, साधना न करने पर
होता है. मन में उठती किसी वृत्ति के साथ जब वे एकाकार हो जाते हैं, साक्षी भाव
में नहीं रह पाते. इसी को संसार कहते हैं. व्यर्थ ही ऊर्जा का व्यय होता है और
आत्मा के पद से गिरकर वे नीचे फेंक दिए जाते हैं. असजग होकर जीने का, अहंकार में
जीने का और द्वेष भाव में जीने का यही परिणाम होता है, आसक्ति का यही परिणाम है !
साधना आजीवन चलती रहने वाली प्रक्रिया है. कितने ही अनुभव हो जाएँ, निश्चिन्त नहीं
हुआ जा सकता, मन के स्तर पर आना ही होता है. पुराने संस्कारों को यदि आलम्बन मिल
जाये तो वे पुनः अपना सर उठा लेते हैं. भीतर अभिमान भी सूक्ष्म रूप से विद्यमान है
ही. देहाभिमान भी है क्योंकि देह यदि सुंदर है तो मन भी प्रसन्न होता है और मन
शांत हो तो देह पर उसकी झलक भी दिखाई पड़ जाती है. पिछले दिनों मन में जो उहापोह चल
रही थी, उसका असर शरीर पर स्पष्ट दीख रहा है. सद्गुरू से इस बारे में कुछ पूछने
जायें तो कहेंगे, जितना हो सके सहज रहो. वही तो नहीं होता, एकांत में जो सहजता
स्वाभाविक रहती है, वही लोगों के सामने कुछ खो जाती है. जो भी है जैसा है उसे वैसा
ही स्वीकार लेने से सहजता को बचाया जा सकता है ! साक्षी भाव में रहकर अनुकूल व परिस्थितियों
को देखते रहना ही उनके वश में है.
आज भी मौसम खुशगवार है, धूप
खिली है. कल वे नन्हे के एक मित्र के भाई की शादी के रिसेप्शन में गये. नन्हे का
फोन आया था, वह मोटरबाइक से कोजीकोट जाना चाहता है. उसे रोमांच पसंद है. शिवरात्रि
आने वाली है. उसने पढ़ा, इस ब्रह्मांड का आकार एक उलटे अंड जैसा है, जिसका तला खुला
है. लेकिन वह अनंत है. ब्रहमा व विष्णु भी जिसका पार नहीं पा सके. समपर्ण ही एक
मात्र उपाय है जिससे कोई उनको जान सकता है, क्योंकि कुछ नहीं होते ही कोई सब कुछ
हो जाता है ! खालीपन तो आकाश के खालीपन सा ही है और खालीपन मायापति है, सबकुछ शून्य
से आया है और शून्य में ही समा जायेगा !
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