Friday, March 31, 2017

गोकुल और नवनीत


सितम्बर शुरू हो गया, बादल पूरे अगस्त बरसते रहे, देखे, इस महीने क्या होता है. बादलों का मौसम कृष्ण की याद दिला देता है, उनका जन्म भी ऐसे ही मौसम में हुआ था और उनका रंग भी शायद इसीलिए..सुबह कृष्ण लीला का स्मरण करते ही आँखों में भी बादल घिर आये..अद्भुत हैं कृष्ण !  जैसे उसे कह रहे हों, मैं हूँ न ! वह अपने मन को गोकुल बना सकती है तो कृष्ण उसमें बसने को सदा तत्पर हैं. वह अर्जुन की तरह यदि उनकी शरण में जा सकती है तो उन्होंने उसकी कुशल-क्षेम का वचन दे ही दिया है, वह अपने को सुपात्र बना लेती है तो कृष्ण उसमें रहे नवनीत को ग्रहण करने ही वाले हैं. शुद्ध, सात्विक भोजन खाने से मन व तन दोनों हल्के रहते हैं, इसका अनुभव हो रहा है. कल इतवार शाम को बंगाली सखी की माँ आएँगी उनके यहाँ. उसने सोचा है उनकी पसंद की कुछ वस्तुएं बनाएगी, वह इतनी उम्र में भी कितना ध्यान रखती हैं अपने वस्त्रों व मेकअप का, खूब बातें करती हैं और छोटी लड़कियों की तरह चहकती हैं, यही उनकी सेहत का राज है.

सुबह उठे वे तो ठंडी हवा बह रही थी, उसके बाद वर्षा शुरू हुई जो रुकने का नाम नहीं ले रही है. कपड़े धोकर नैनी बाहर ही छोड़ गयी थी, वह उठी उन्हें फ़ैलाने के लिए पर पिताजी ने पहले ही फैला दिए थे, उन्हें अपने लायक किसी न किसी काम की  तलाश रहती है, कोई भी मौका नहीं चूकते. आज वे बोले, शरबत की जगह चाय पियेंगे, मौसम ठंडा हो गया है.

शिक्षक दिवस है आज ! दो छात्रायें उसके लिए पेन तथा कार्ड लायी है और एक की माँ ने भी एक उपहार भिजवाया है. वह खुद मृणाल ज्योति गयी थी. टीचर्स को उपहार दिए, मिठाई खिलाई. जून आज दिल्ली गये हैं, तीन दिन बाद लौटेंगे. उसे कुछ काम तो करने हैं, कुछ लिखना है और साक्षी बने रहना है हर कृत्य में. कर्ता भाव से कुछ भी नहीं करना है. पिताजी को फोन करना है, भीतर कैसी अनोखी शांति है. स्वचेतना खो जाने पर केवल चैतन्य मात्र रह जाने पर ही ऐसी शांति का अनुभव होता है !

अभी कुछ देर पूर्व जून का फोन आया था, उसके जूते का नम्बर पूछ रहे थे, वह इतनी दूर रहकर भी उसका इतना ध्यान रखते हैं. आज दीदी से बात हुई, वे लोग नार्वे में मन्दिर गये थे, भारतीय जहाँ भी रहते हैं, मन्दिर का निर्माण कर ही लेते हैं. एक वरिष्ठ ब्लॉगर महोदया जी का मेल आया था कल, ‘नारी विमर्श’ पर कुछ लिखने को कहा था अपनी समझ से. कभी-कभी भीतर कुछ लिखने का मन होता है, पर उस वक्त कागज-कलम साथ नहीं होते, वक्त गुजर जाता है. जब कागज-कलम लेकर बैठे तो कुछ भी नहीं लिखा जाता है. कल रात एक सुंदर पंक्ति जहन में आई थी. बहुत बार दोहराई कि याद रहेगी पर अब उसका निशान भी शेष नहीं है. मन के आकाश में उड़ते हुए बादल सी कोई लाइन आयी और खो गयी..वे व्यर्थ ही अपना होने का दावा करते हैं विचारों को ! कल शाम आलोचना में कुछ पढ़ा, आज नेट पर और फिर एक लम्बी कविता जैसी कुछ लिख दी. उन्होंने जवाब भी दिया, शानदार ! शायद उदंती में छपने के लिए भेजें. वर्षा जारी है !



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