Wednesday, January 27, 2016

मेहनतकश मजदूर


अनुकूल संयोग यदि भोजन हैं तो प्रतिकूल संयोग विटामिन हैं. जीवन में जो कुछ भी अच्छा-बुरा मिलता है, स्वयं के ही कर्मों का फल होता है यदि ऐसी किसी की मान्यता है तो दुखों के आने पर उसे प्रसन्न होना चाहिए कि एक बुरा कर्म कट रहा है. भीतर समता बनाये हुआ जब कोई हर परिस्थिति को झेल जाता है तो भविष्य के लिए कोई कर्म बंधन भी नहीं बांधता. आज भी ध्यान में कुछ अलग अनुभव हुआ. एक सखी ने फोन किया, उसने स्वप्न देखा कि उसके घर में वह अपने जन्मदिन पर नृत्य कर रही है. अद्भुत है यह स्वप्न, उसका मन तो आजकल सदा ही नृत्य करता है कदम भले ही स्थिर हों. परसों एक दूसरी सखी की बिटिया का पहला जन्मदिन है, उसके लिए जो कविता लिखी थी, उसे टाइप करना है. कल शाम सत्संग था उसके बाद भोजन का भी प्रबंध था, समूह भोज का अपना ही स्वाद होता है. सुबह जून से बात हुई, वह ठीक हैं. एक समय था जब अकेलापन उसे खलता था, एक आज का वक्त है जब एकांत उसे भाता है, नितांत एकांत ! जब एक वही होता है कोई दूसरा नहीं होता. एक में कितनी शांति है, अद्वैत ही उनका लक्ष्य है, जहाँ दो हुए, सारे विकार आए.

ब्रह्म का बीज लिए तो सब आते हैं पर बिन बोये ही चले जाते हैं, ऐसे बीज और कंकर में अंतर भी क्या. हर मन की गहराई में ब्रह्म छिपा है पर जैसे बीज को मिटना होता है फूल खिलने के लिए, मन को भी मिटना होता है तभी ब्रह्म का फूल खिलता है. जिस दिन मन जान लेता है कि उसके होने में ही बंधन है तब यह स्वयं को सूक्ष्म करने की प्रक्रिया प्रारम्भ करता है. यह ‘मैं’ का पर्दा मखमल से मलमल का करना है, जिस दिन मन पूरा मिट जाता है उस दिन परमात्मा ही बचता है.  जीवन में दो ही विकल्प हैं, या तो ‘मैं’ भाव में जियें या प्रेम भाव में. जगत और परमात्मा दो नहीं है पर वह तभी दिखाई देता है जब संसार माया हो जाता है. अभी मन खाली नहीं है, भीतर कोलाहल है, इसे शांत करके ही मन महीन किया जा सकता है. जो जितना सूक्ष्म होता जायेगा उतना ही शक्तिशाली होता जायेगा. वह चट्टान सा दृढ़ भी होगा और फूल से भी कोमल. वह होकर भी नहीं होगा और उसके सिवा कुछ होगा भी नहीं, सारे द्वंद्व उसमें आकर मिट जयेंगे. वह होने के लिए कुछ करना नहीं है. वह तो है ही, केवल उसे जानना भर है. मन को खाली करना ऐसा तो नहीं है कि कोई बर्तन खाली करना हो. कामना को त्यागते ही या समर्पण करते ही मन ठहर जाता है. ठहरा हुआ मन ही खाली मन है !

कल रात स्वप्न में गुरूजी को देखा, सुबह तक उसकी स्मृति बनी हुई थी. इस समय दोपहर के ढाई बजे हैं, घर में रंगाई-पुताई का काम चल रहा है, सब सामान फैला है पर इस बिखराव में भी एक सौन्दर्य है. काम खत्म हो जाने पर जब सब सामान पूर्ववत् रख दिया जाता है तो कैसा संतोष भीतर जगता है. ये मजदूर जो दूसरों के घर सजाते हैं अपने कपड़े भी गंदे कर लेते हैं, उनके हाथ भी कितने रूखे हो जाते होंगे, पेंट छुड़ाते-छुड़ाते. इस दुनिया में हजारों पेशे करने वाले लोगों का समाज है, घटिया से घटिया काम भी और बढ़िया से बढ़िया भी, लेकिन हर काम की जरूरत तो है ही. उसका मन इन मजदूरों की ओर जाता है तो उनको कुछ देने की इच्छा होती है. चाय के साथ चंद बिस्किट देकर वह अपनी इस इच्छा की पूर्ति कर लेती है. आज सुबह से ही लग रहा है कि सद्गुरु का वरदहस्त सिर पर है. वह परमात्मा ही सदगुरुओं के रूप में समय-समय पर अवतरित होता है, उन्हें जो पहचान लेता है वह स्वयं का दीपक भी जलाने का इच्छुक हो जाता है. कृपा तो हरेक पर समान रूप से बरसती है पर कोई-कोई उस कृपा को अपने जीवन में फलीभूत होने का अवसर देते हैं. वे मस्ती में खोये रहते हैं. वे अपने भीतर आनन्द के स्रोत से जुड़ जाते हैं. ध्यान और प्रेम के पथ पर निडर होकर कदम रख देते हैं. ऐसा पथ जो प्राप्ति भी कराता है और गति भी भी प्रदान करता है !

       

1 comment: