सिर में एक
ध्वनि उसे स्पष्ट सुनाई दे रही है. आज ध्यान में ज्वाला की प्रतीति हुई, अग्नि में
जलकर उसके सारे कल्मष नष्ट हो जाएँ, परमात्मा से यही प्रार्थना है. कल रात को अजीब
सा स्वप्न आया और आज सुबह नैनी पर पल भर के लिए क्रोध भी किया. इन विकारों को
स्वयं में नहीं मानती, स्वयं को शुद्ध, बुद्ध आत्मा ही मानती है वह और ध्यान में
इसका अनुभव भी होता है, लेकिन अभी मंजिल मिली नहीं है. वह परमात्मा अनंत है. थोड़ी
सी साधना से ही कृपा बरसने लगती है, लगता है अरे, वे तो इसके योग्य ही नहीं थे..आज
गुलदाउदी के पौधे पुनः लगा दिए. कल जून लौट आए और शायद अपने होश में पिछले कई
वर्षों में पहली बार उन्हें ऐसा लगा हो कि कहीं कोई विरोध का एक अंश भी नहीं है,
पूर्ण स्वीकृति और शायद इससे ही मुक्ति का मार्ग मिलेगा. ‘व्यक्ति, वस्तु,
परिस्थिति को वे जैसे हैं वैसा ही स्वीकारें’, इस सूत्र को जीवन में अभी तक पूरी
तरह कहाँ उतार पायी थी.
ध्यान
में जब होने का भाव यानि अहंता का लोप हो जाता है, चैतन्य नहीं बल्कि चैतन्य घन
शेष रहता है, तब देह का भी भान नहीं रहता, जगत लोप हो जाता है. अभी उसे स्वयं का
बोध रहता है, कभी क्षण भर के लिए शुद्ध चेतना शेष रहती भी है तो बीच-बीच में
व्यवधान पड़ जाता है. एक तैल धारवत् स्थिति देर तक नहीं टिक पाती. यही अहंता है.
इसी जन्म में उसे पूर्ण समाधि का अनुभव होगा ऐसा उसका पूर्ण विश्वास है. सद्गुरू
और परमात्मा की कृपा हर क्षण उसके साथ है. उसका अनुभव करने लगो तो अंत ही नहीं
आता, वह बरस ही रही है, उनका पात्र जितना बड़ा हो उसी के अनुसार उन्हें मिलती है.
सभी के भीतर यह क्षमता है कि उस कृपा को पाले लेकिन लीला के अनुसार हरेक को अपना
पात्र निभाना है. अहंकार का विसर्जन ही नहीं हो पाता यही सबसे बड़ी बाधा है. कल भी
सुना, पहले भी सुना था सातवें चक्र तक साधक पहुँच जाता है पर आठवें पर कोई-कोई ही पहुँच पता है. कृपा का भी गर्व हो
जाता है. सब कुछ उसी का है, उसी का खेल है, स्वयं भी उसी का है.
आज ध्यान
में स्वयं को सारी भावनाओं का स्रोत माना. यदि उनके भीतर किसी के प्रति प्रेम अथवा
घृणा का भाव उठता है तो वह उनके ही भीतर से उपजा है. वे उस व्यक्ति पर प्रक्षेपित
मात्र कर रहे हैं. उस भाव से उस व्यक्ति या परिस्थिति का कुछ भी लेना-देना नहीं
है. इस ध्यान से वे कितने ही दुखों से बच जाते हैं. यदि वे अपने हर कम में पूर्ण
चेतना का समावेश कर सकें तो हर कर्म ही ध्यान हो जायेगा और ऊर्जा भी व्यर्थ खर्च
नहीं होगी. जब मन अनंत हो जाये तो नष्ट हो जाता है और शेष रहता है अनंत आकाश सा
परमात्मा !
कल रात
नींद में उसका हाथ हृदय पर आ गया था. स्वप्न में देखा, माँ छोटे भाई को बहुत डांट
रही हैं, मार भी रही हैं, वह रो रहा है. नींद खुल गयी. एक कविता लिखी थी उन बच्चों
के लिए जो माता-पिता के क्रोध का शिकार बेवजह ही हो जाते हैं, उसी का परिणाम था यह
स्वप्न. अपने प्रियजनों को वे ही दुःख देते हैं. अपने स्वप्न भी खुद ही बनाते हैं.
कल पूजा के लिए कपड़े लाये वे, उनके यहाँ काम करने वालों के लिए, दशहरा अब निकट ही
है और दीवाली को भी कम समय रह गया है. पिताजी अष्टमी की पूजा में कन्याओं को स्टील
के ग्लास देना चाहते हैं.
दो दिन कुछ
नहीं लिखा. कल विश्वकर्मा पूजा थी और परसों ‘द्रौपदी’ पढ़ती रही. प्रतिभा राय की
पुस्तक बहुत अच्छी है, पूरे मनोयोग से लिखी गयी है. टीवी पर बापू की ऑस्ट्रेलिया
में हो रही कथा ‘मानस मृत्यु’ का प्रसारण हो रहा है. आज का ध्यान भी अच्छा था. उसे
अपने भीतर ही सडकें तथा ट्रैफिक दिखा..उनके भीतर ही सारा विश्व समाया है, वे अनंत
हैं, व्यर्थ ही स्वयं को सीमित मानकर दुखी होते हैं. आज धूप तेज है, सूर्य अपनी
पूरी शक्ति के साथ दमक रहा है. वह पंखे के ठीक नीचे फर्श पर बैठकर लिख रही है.
आपकी इस प्रस्तुति की लिंक 26-01-2017को चर्चा मंच पर चर्चा - 2585 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद