दो दिनों
का अन्तराल ! जून कल शाम वापस आ गये. आज सुबह गर्मी के कारण या अन्य किसी कारण से
साधना करने का उत्साह नहीं था. कल दोपहर बच्चों को सिखाते समय खुद की आवाज भी बदली
हुई सी लग रही थी, बच्चे ज्यादा थे, नियन्त्रण में नहीं आ रहे थे. आज अगस्त का महीना
भी शुरू हो गया. स्वतन्त्रता दिवस, जून का जन्मदिन और कृष्ण जन्माष्टमी भी सम्भवतः
इसी महीने में होगी.
बड़ी ननद
की बेटी की बात पक्की हो गयी है. वे सभी बहुत खुश हैं. हर साधक के जीवन में कभी न
कभी वह पल तो आता होगा जब वह कहे कि, आज वह साधना से भी मुक्त हो गया है. जो पाना
था इस साधना से वह पा लिया है. देह अलग और आत्मा अलग भास होने लगी है. अब साधना
में पहले की सी रूचि नहीं रह गयी है. समाधि का अनुभव हो गया है. अब कोई संशय नहीं
रहा. उसे लगता है वह दिन आने ही वाला है.
जून आज पुनः
कोलकाता गये हैं. सुबह ध्यान में सिर के ऊपरी भाग में तीव्र संवेदना हुई, एक बार
ट्रैक दिखा जिस पर धावक दौड़ रहे थे. ध्यान में बंद आँख के बावजूद वस्तुएं कितनी स्पष्ट
दिखाई देती हैं, आज खुली आँख से एक मूरत के दर्शन किये जो आज्ञा चक्र पर रोज उसे
दिखती है. अद्भुत है भीतर की दुनिया और अद्भुत है परमात्मा !
आज सुबह
क्रिया के बाद भीतर से कोई बोल रहा था. उसका अवचेतन ही होगा कि वे समाधि भी अहंकार
की पुष्टि के लिए पाना चाहते हैं. एक सांसारिक व्यक्ति जैसे सम्मान चाहता है, वह
कोई कला सीखता है या कुछ करके दिखाता है. रूप का अभिमान होता है उसे, अपने पद का,
प्रतिभा का गुरुर होता है और जब कुछ लोग उसकी तारीफ करते हैं तो उसे एक सुख की
प्राप्ति होती है, वैसा ही सुख यदि एक तथाकथित आध्यात्मिक व्यक्ति भी पाना चाहे..
उसे लगता है यह भेद ही गलत है क्योंकि दोनों के पास शरीर, मन व आत्मा है.
आध्यात्मिक के पास आत्मा का अनुभव भी है, वह स्वयं को अजन्मा, अनादि, अनंत जान चुका
है, वह सुख-दुःख में सम रह सकता है. ग्रीष्म, शीत भी उसे नहीं छूते लेकिन मन अभी
भी उसके पास है, जिसमें पुराने संस्कार भी हैं. देह की देखभाल करना व उसे स्वस्थ व
सुंदर रखना उसका सहज कर्म है. जो कुछ भी कर्म उससे होते हैं, उनके कारण हुई
प्रशंसा को पचा पाना उसे भी सीखना होता है वरना पुरानी आदत पीछा नहीं छोड़ती. उसे
यह तो ज्ञात है कि आत्मा की शक्ति से ही सब कुछ हो रहा है, मन, बुद्धि, व देह
स्वयं जड़ हैं, यदि आत्मा न हो तो ये कुछ भी नहीं कर सकते. स्वयं को आत्मा मानने का
अर्थ है परमात्मा का अंश मानना, करने वाला परमात्मा ही हुआ, अभिमान करे भी तो कौन..जड़
को गर्व करना शोभा नहीं देता और चेतन को कैसा अभिमान..वही तो एक तत्व है..जो एक ही
है अभिमान करे भी किससे, दूसरा कोई हुआ ही नहीं ! समाधि का अनुभव इसलिये करना है
कि जन्मों के जो अशुभ संस्कार भीतर पड़े हैं, जल जाएँ..अंतर पावन हो जाये जो
परमात्मा के चरणों में समर्पित किया जा सके..जून ने सुबह फोन किया, बत्तीस राखियाँ
ख्ररीदी हैं उन्होंने. आज सद्गुरू के साथ ध्यान किया आधे घंटे का ऑन लाइन मेडिटेशन !
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "टूटी सड़क के सबक - ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDelete