Friday, January 27, 2012

मुर्दों का टीला




अभी कुछ देर पूर्व जून बाजार में आटा वापस कर के आया, यहाँ का नमी भरा मौसम,  कुछ भी ठीक नहीं रहने देता, न आटा न दालें आदि, बहुत कम मात्रा में वे सामान खरीदते हैं. आज भी सुबह बारिश हो रही थी. गर्मी का नाम नहीं है. कल शाम वे किसी परिचित के यहाँ गए, उनकी पत्नी माँ बनने वालीं थीं, शायद आठवां महीना था, वह बहुत कृश लग रही थीं, उन्हें उस हालत में देखकर नूना को बहुत घबराहट हुई. घर आकर उसने यह बात जून से भी कही. खाना भी अच्छा नहीं बना, पर आम बहुत मीठा था, सो वे उसकी मिठास में खाने का स्वाद भूल गए. आज दिन में उसने ‘रांगेय राघव’ की पुस्तक ‘मुर्दों का टीला’ पढ़नी आरम्भ की है, अभी प्रस्तावना ही पढ़ पायी थी, गोगोल की कहानी पढ़कर तो उसे मजा ही आ गया. रुसी कहानियाँ उसे हमेशा से ही अच्छी लगती आयी हैं.

कल वे ‘फूल और पत्त्थर’ देखने गए, तभी हॉल में जून के किसी सहयोगी ने एक पत्र दिया, बड़ी बहन का पत्र पढ़कर बहुत अच्छा लगा, उसने सोचा कि यदि वह घर पर होती तो कुछ दिनों के लिये उन के पास रह कर आती. इस बार का धर्मयुग विचित्र वृतांत अंक है, इतवार को लाइब्रेरी सुबह के वक्त खुलती है उसने सोचा तभी पढेगी.
एक यादगार इतवार... कल रात नींद नहीं आ रही थी, सुबह देर से उठे कुछ भी समय पर नहीं हो रहा था, जून ऐसे में झुंझला जाता है पर जहाँ प्रेम हो वहाँ तनाव भी आने से डरता है. दोपहर तक सब कार्य हो गया. नूना को समझ नहीं आता कि इतने प्रेम के बावजूद कैसे वह कभी-कभी इतनी निष्ठुर हो जाती है उसके प्रति.     

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