Monday, January 16, 2012

इंद्रधनुष सतरंगी नभ में


सुबह के सवा नौ बजे हैं, आधा घंटा पूर्व नूना सूखने के लिये कपड़े तार पर फैला कर इस कमरे में आयी थी. गीता खोली पढ़ने के लिये पर मन नहीं लगा, पता नहीं क्यों कभी-कभी मन बेवजह ही उदास हो जाता है. बाहर लॉन में दो कर्मचारी फेंसिंग ठीक कर रहे हैं. मिल्क कुकर आवाज दे रहा  है, दूध उबल गया है. कल रात कितने स्वप्न देखे, शाम को एक वर्ष पहले लिखी चिठ्ठी पढ़ी. एक वर्ष में कितना कुछ बदल गया है. प्यार का उमड़ता वह समुद्र अब शांत गहरे जल में बदल गया है. क्यों, कैसे, कब, क्या हो जाता है, क्या छूट जाता है, कुछ समझ नहीं आता. सत्य को स्वीकारना होगा. यही कर्त्तव्य है और कर्त्तव्य से भागना नहीं चाहिए. खुले मन से यदि सब कुछ जैसा है वैसा ही स्वीकारें तो...कितना अच्छा हो.
अब दोपहर के तीन बजे हैं, नूना खुशवन्त सिंह की पुस्तक पढ़ती रही दोपहर भर. आँखें थक गयी हैं. अभी सूजी का हलवा बनाना है शाम के नाश्ते के लिये. कल क्लब में आनंद फिल्म देखी, बाहर निकले तो आकाश में इंद्रधनुष था, कितना सुंदर लगता है इन्द्रधनुष, यहाँ उसे रामधेनु कहते हैं. जब भी इसे देखती है बचपन में पढ़ी कविता याद आ जाती है, when I behold a rainbow in the sky my heart leaps up….

  

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