जीवन एक नये मोड़ पर आकर खड़ा है, पिछले कई वर्षों से रोज सुबह गुरूजी के
प्रेरणावाक्य उसे प्रेरित करने के लिए सुनने को मिलते थे पर आज से डिश टीवी पर
संस्कार चैनल नहीं दिखाया जायेगा. सुबह से ही मन इस बात से उदास हो रहा है, वह उसे
समझाती है तो खुश हो जाता है पर वर्षों का जो संस्कार उस पर पड़ा है, उसके कारण वह
व्यथित हो रहा है. गुरूजी उसका हर संस्कार मिटाना चाहते हैं, आसक्ति चाहे अमृत की
हो या विष की बुरी ही है. मन चाहे सतोगुण में अटका हो या रजोगुण अथवा तमोगुण में,
उसका अटकना ही बताता है कि अभी वह है. अमनी भाव में आये बिना मुक्ति नहीं. मन यदि
सुखी-दुखी होता है तो अभी अहम् बरकरार है. इसलिए इस दोराहे पर आकर ऊपर और कठिन
रास्ते को चुनना है. कुछ भी न रहे पास, आत्मा कभी साथ नहीं छोडती, परमात्मा का पता
जब तक न लगे इस आत्मा का ही आश्रय लेना होगा. उसके दातों की तकलीफ अभी ठीक नहीं
हुई है, एंटीबायोटिक का एक कोर्स लेना पड़ेगा.
आज बादल बने हैं,
पिछले कई दिनों से रात को वर्षा होती थी और दिन में धूप निकलती थी, मौसम का मिजाज
निराला है, उनके मिजाज की तरह. यदि किसी को उसके कारण पीड़ा हो या परेशानी हो तो मन
कैसा तो हो जाता है और भीतर कैसा ताप महसूस होता है. नकारात्मकता भीतर तपाती है,
बुरा लगना भी तो वही है. वे चाहे आत्मग्लानि से भरें या परपीड़न करें दोनों ही
स्थितियों में दुःख पाते हैं. वास्तव में इस सृष्टि में दूसरा कोई है ही नहीं, एक
ही सत्ता है तो उसे ही कर्मों का फल भुगतना पड़ेगा. आत्मा के स्तर पर सभी एक हैं.
मन की गहराई में जाकर जब वे अपने विकारों को अनुभव करते हैं तो वे छूटने लगते हैं,
पर छूटते-छूटते ही छूटते हैं. अब भी न जाने कितने जन्मों के संस्कार पड़े हैं.
सद्गुरू कहते हैं हजारों वर्षों का अंधकार एक दीपक के जलते ही क्षण भर में दूर हो
सकता है तो क्यों नहीं भीतर का अधंकार दूर हो सकता ? जागरण तो हुआ है पर वह सदा
नहीं टिक पाता. बीच-बीच में स्वप्नावस्था भी आती है और निद्रा प्रमाद व तंद्रा भी,
तथा इन सबके दंश भी झेलने ही पड़ते हैं.
आज हाईस्कूल का
रिजल्ट आया है, एक सखी के पुत्र के अंक नब्बे प्रतिशत से अधिक हैं. उसकी छात्रओं
के हिंदी में तिरासी व अट्ठासी प्रतिशत अंक आए हैं. इतने वर्षों की उनकी मेहनत का फल
कुछ अच्छा तो नहीं मिला. खैर, आज गर्मी है. बाहर की गर्मी का असर भीतर भी हो ही
जाता है. कृष्ण कहते हैं सुख-दुःख, गर्मी-सर्दी इन्द्रियों द्वारा अनुभव किये जाते
हैं, आत्मा पर इनका कोई असर नहीं होता, पर उसे लगता है कि भीतर तक सब तपने लगता है
जैसे ही कोई नकारात्मक भाव जगता है. नन्ही छात्रा को गिनती लिखाते वक्त या माँ को
सब्जी बनाने में सहायता करते वक्त कभी-कभी भीतर कैसी तल्खी सी आ जाती है, जो ध्यान
में आते ही गायब हो जाती है, पर कैसा कड़वा स्वाद मन में छोड़ जाती है. संस्कारों के
वशीभूत होकर ही ऐसा होता है. उसकी मुक्त आत्मा तो प्रेम व शांति से भरी है, पर मन
किसी का शासन नहीं मानता, न ही किसी पर शासन करना चाहता है. वह सबको आत्मनिर्भर व
मुक्त देखना चाहता है, ऐसा न होने पर वह विद्रोह कर बैठता है. अहंकार को पोषने के
लिए कहीं वह बड़े-बड़े शब्दों का सहारा तो नहीं ले रही. गोयनका जी कहते हैं जब भी
भीतर असहजता का अनुभव हो तो यह पाप है, जब भी भीतर दुःख हो, क्रोध हो तो कारण
अहंकार ही है. जब भीतर शांति हो, सुख हो, प्रेम हो तो मानो अहंकार नहीं है. वह यह
भी कहते हैं जब भीतर ताप होता है तो कोशिकाओं पर इसका असर होता है. चेहरे पर क्रोध
के भाव जितनी बार भी पड़ते हैं, अपनी छाप छोड़ते जाते हैं. तभी तो संतों का चेहरा
कितना प्यारा लगता है और आम इन्सान का..
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