आज टीवी पर ‘अमृत कलश’ कार्यक्रम में कोई लेखक व समाज
सेवी आये थे, पार्टीशन के समय उनके पाकिस्तान से भारत आने की बातें सुनकर उसे पिता
का स्मरण हो आया. वह भी लगभग उसी उम्र के थे जब भारत आये थे. उन्होंने एक प्रसिद्द
शेर सुनाया-
हम पर दुःख का पर्वत टूटा
तो हमने दो चार कहे
उन पर क्या-क्या बीती होगी
जिसने शेर हजार कहे
बाबाजी ने आज ईश्वर कीं
शरण में जाने का वास्तविक अर्थ बताया. जहाँ से विचारों का उद्गम होता है वहाँ यदि
मन विश्रांति पाना सीख ले तो ईश्वर की शरण अपने आप मिल जाती है. आजकल वह
स्थितप्रज्ञ के लक्षणों पर विस्तृत व्याख्यान माला पढ़ रही है जो पिता की डायरी में
लिखी है. उन्हें फोन पर धन्यवाद भी देना है पर जब तक स्वतः स्फूर्त प्रेरणा नहीं
होगी फोन पर बात करना औपचारिकता ही होगी. माँ के न रहने से पत्र व फोन का उत्साह
जैसे खत्म ही हो गया है. सुबह शाम उनकी आँखें उसे देखती रहती हैं. वह अब इस संसार
के कर्म बन्धनों से मुक्त हो गयी हैं.
अशुद्ध बुद्धि में आत्मबोध
नहीं होता, शुद्ध बुद्धि में ही यह सम्भव है. प्रज्ञा अर्थात शुद्ध बुद्धि तभी
प्राप्त होती है जब मन शांत हो, निर्विचार और निर्विकल्प हो और चित्त शुद्ध हो और
वह हर क्षण अपने चित्त की निर्मलता को मलिन करने के प्रयास में जुटी रहती है,
फूलों को छोडकर कांटे चुनने की आदत जाती ही नहीं, अपने आप को क्रोध से रहित हुआ
जानती है फिर किसी दुर्बल क्षण में क्रोध कर बैठती है. कल शाम एक सखी के यहाँ
निंदा रस की भागी भी बनी, किसी अनुपस्थित व्यक्ति के बारे में चर्चा को यही कहा जायेगा
न. ज्यादा बोलना भी शुरू कर दिया है जबकि मौन से ही चित्त शांत होता है. अहंकार
पीड़ा है, दुःख है, नर्क का द्वार है फिर भी अहंकार पीछा नहीं छोड़ता. समय के एक-एक
क्षण का उपयोग करना चाहती है पर सारे कार्य नहीं कर पाती. जून की छुट्टियाँ हों तो
ऐसे भी मन बँटा रहता है. नन्हे को खांसी है पर सुबह गरारे नहीं करता, सबकी यही दशा
है जो कार्य उनके लिए सुखद हैं वे नहीं करते जो नहीं करने चाहिए वही करते हैं.
कल ‘बुद्ध पूर्णिमा’ का
अवकाश था पर उसने एक बार भी महात्मा बुद्ध का स्मरण नहीं किया, अनजाने में नन्हे
को हिंदी पढ़ाते समय बुद्ध प्रतिमाओं का विवरण अवश्य पढ़ा था. बुद्ध की हजारों,
लाखों प्रतिमाएं विश्व के कई देशों में स्थित हैं, जिनमें उनके चेहरे पर शांति का
अनोखा भाव झलकता है, सोयी हुई, खड़ी और बैठी मूर्तियाँ अपने शिल्प के लिए प्रसिद्ध
हैं. उनके सान्निध्य में शांति का अनुभव भी होता है. बुद्ध ने जीवन को दुखों का घर
कहा था जो सत्य ही था और हर दुःख का कारण है इच्छा, इच्छाओं की उत्पत्ति संकल्पों
से होती है, उनको ही नष्ट करना है. इच्छा जब अपने मूल रूप में है, बीज रूप में तभी
उसका नाश आसान है, जब वह जड़ पकड़ लेती है तब उसका नाश कठिन है. इस समय उसके मन में
कोई संकल्प नहीं है सिवाय आत्मबोध के संकल्प के. उसे नन्हे को सुधारने के संकल्प
का भी त्याग करना होगा. जब उसे सुझावों या सलाह की आवश्यकता होगी और जब वह स्वयं
इसके लिए कहेगा तभी उसे कुछ कहेगी. ज्यादा बोलना प्रभावशाली नहीं होता, मौन ज्यादा
प्रभाव डालता है. इससे घर में शांति भी रहती है और मन भी संकल्प-विकल्प से परे
रहते हैं. वह अपने कर्त्तव्य का पालन करती रहे, किसी पर भी अपने विचार न थोपे, इसी
में उसकी व अन्य की भी भलाई है. वह अन्य चाहे कितना भी निकटस्थ हो ! हरेक के पास
अपनी जीवनदृष्टि है, हरेक में वही परमात्मा विराजमान है. हरेक को वही उसके हित
हेतु मार्गदर्शन देता है. हरेक को अपना
रास्ता स्वयं बनाना है. वे अपनी ऊर्जा व्यर्थ ही गंवाते हैं जब अन्यों पर अपना
अधिकार समझते हैं, साधक को तो इससे बचना चाहिए, साधक की दृष्टि में सभी प्राणी
समान हैं सभी उस एक पथ के राही हैं, देर-सवेर हरेक को वहीं पहुंचना है. अपनी-अपनी
योग्यता व क्षमता के अनुसार कोई पहले तो कोई बाद में वहीं जायेगा, उस पूर्णता की
ओर !
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