Monday, October 27, 2014

सत्यकाम-धर्मेन्द्र की फिल्म


सुख लेने की इच्छा का त्याग कर सुख देने की कला सीख लें तो अंतर से सुख का वास्तविक स्रोत उजागर होगा, जिन वस्तुओं से भौतिक सुख मिलता है उन्हें बांटने से भी आंतरिक सुख मिलेगा. बाबाजी बहुत सरल शब्दों में मन को संयमित करने के उपाय बताते हैं, ऐसे व्यक्ति इस धरा पर हैं तभी यहाँ रौनक है वरना धरती पर सत्य के लिए स्थान कहाँ हैं. कल ‘सत्यकाम’ फिल्म देखी, वर्षों पहले इसका नाम सुना था, धर्मेन्द्र की प्रसिद्ध फिल्म है. रात को देखकर सोयी थी सपने में भी वही देखती रही. सत्य के कारण कितने दुःख उन्हें झेलने पड़े लेकिन सत्य ने ही अंततः उनकी रक्षा की. जून को भी अच्छी लगी, देर रात तक जग कर वह कम ही टीवी देखते हैं. कल गोयनका जी भी आये थे, कहा, “प्रतिक्रिया ही सुख-दुःख का कारण है, यदि पहले क्षण में कोई प्रतिक्रिया न करे तो संवेगों से बच सकता है.”

आध्यात्मिकता आखिर है क्या ? मन को खाली करना ही तो, ऐसा मन फूल की तरह हल्का होगा, निर्झर की तरह निर्मल होगा, स्फटिक के समान चमकीला होगा और ऐसे मन में उठा संकल्प शुद्ध ही होगा और वह पूर्ण भी होगा. धर्म भीतर है, उसमें टिकने की कला भी आध्यात्मिकता है, उसके बाद ही जीवन में उत्सव का आगमन होता है, अपने आसपास के वातावरण को बेहतर बनाने का प्रयत्न होता है.

आज जैन मुनि को सुना, “जीवन रहते ही जीवन का बहीखाता सही कर लेना चाहिए, जीवन का हिसाब-किताब यदि ठीक रहेगा तो मृत्यु के महोत्सव को मनाने की प्रेरणा जगेगी. मरण यदि सजगता में हो तो मन शरीर से अतीत हो जाता है और आत्मा में टिक जाता है. राम को घासफूस की कुटिया में भी चैन था और रावण को स्वर्ण महलों में भी नींद नहीं आती थी. पर न वह कुटिया रही न महल, क्योंकि यहाँ सब नश्वर है. यह मकान भी मरघट है हर क्षण प्राण मर के घट रहे हैं”.  इस समय दोपहर के तीन बजे हैं. सुबह उठे तो पिता को फोन किया. उन्होंने मकान खरीदने वालों के बारे में बातें कीं, अपनी तथा परिवार के अन्य सदस्यों की एक वाक्य में ‘सब ठीक है’ कहकर ही टाल दिया. छोटी बुआ को फोन करने का मन था पर नहीं किया. एक सखी ने कल शाम ‘रेकी’ के कोर्स के लिए पूछा था पर जून साफ मना कर रहे हैं. उसे लगता है वह भी इस वक्त इसके लिए तैयार नहीं है. आज वह पुस्तक फिर से पढ़नी शुरू की है. कल शाम नन्हे के न पढ़ने पर सखी की टिप्पणी ने उसे दो पल के लिए विचलित कर दिया था. पढ़ाई की कोई सीमा नहीं है, दसवीं में तो बिलकुल नहीं. इस वक्त वह टीवी देख रहा है. गणित और हिंदी कुछ देर पढ़ाया पर समय का पूरा उपयोग नहीं हुआ. आज कुछ नया लिखा भी नहीं.

जीवन क्या है ? इसका उत्तर छत्रपति शिवाजी के गुरु समर्थ दास ने दिया – गति और सतर्कता ही जीवन है, प्रवाह में ही मानव प्रगति को पा सकते हैं. जिज्ञासा और जागरूकता भी जीवन है. जिस दिन हृदय में जिज्ञासा न रही वह मृत हो जायेगा. संक्षेप में कहें तो गति, जिज्ञासा और प्रयत्न ही जीवन है. आज भी वही कल का सा मौसम है. कल शाम एक फिल्म देखी, ‘हमारी बहू अलका’. अभी सुबह के आठ बजे हैं पर पंखे से गर्म हवा आ रही है. बाबाजी ने आज कहा कि शीत और ग्रीष्म को सहने की शक्ति भी शरीर में उत्पन्न की जा सकती है. गीता में भी सुख-दुःख के साथ शीत-ग्रीष्म का जिक्र भी आता है. साधक को इन छोटी-मोटी बाधाओं से घबराना नहीं चाहिए, बल्कि मन को सम रखने का प्रयत्न सदा करते रहना चाहिए.


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