Tuesday, January 7, 2014

गुलजार की कविताएँ


आज सुबह से तन थका-थका लग रहा है, साथ ही मन भी, शायद नींद न पूरी होने से ऐसा हुआ है, पिछले तीन दिनों से सुबह साढ़े चार बजे उठ जाती है, नींद उससे थोड़ा पहले ही टूट जाती है. मौसम आज अपेक्षाकृत गर्म है, जबकि सुबह वर्षा हुई थी. कल शाम क्लब में एक सीनियर मेम्बर ने उससे हिंदी में कुछ लिखने व बोलने का काम दिया नृत्य-नाटिका के लिए, पर शायद उन्हें उसका बोलने का तरीका नहीं भाया, खैर...कोरस की तयारी ठीक चल रही है, मीटिंग का दिन आने में चार दिन शेष हैं, फिर वह नन्हे की पढ़ाई पर ध्यान दे पायेगी. कल दोपहर मुखड़े का अभ्यास किया, सोमवार को जाने से पहले अन्तरा करेगी. कल सुबह एक सखी से बात हुई तो उसे सुझाव देने बैठ गयी बागवानी के लिए, जो उसे शायद ही अच्छा लगा हो, भविष्य में ध्यान रखेगी. क्लब से लौटने में कल देर हो गयी थी, आकर नूडल्स बनाये पहली बार डिनर में, नन्हा और जून दोनों को पसंद आये. कल ptv में ‘यह आजाद मुल्क’ एक धारावाहिक का अंश देखा, दिल को झकझोर कर रख देने वाला एक मंजर था उसमें. सारे पात्र गहरे तक उतर जाते हैं उसके...काफी तीखा व्यंग्य भी था.

आज भी क्लब गयी थी, गाने का अभ्यास नहीं हुआ पर नृत्य कलाकारों के लिए चाय का प्रबंध उसे देखना था. कल भी आना है, परसों जन्माष्टमी है, वे लोग मन्दिर जायेंगे और एक मित्र के यहाँ भी, जहां वे घर पर मन्दिर सजाते हैं. उसने फोन करके जून को क्लब आने के लिए कहा, पर निकलने में थोड़ी सी देर हो गयी, सो वह उदास थे और उन्हें देखकर वह भी.

आज ही वह दिन है, जो उनके लिए महत्वपूर्ण है, अर्थात उनकी नई कमेटी के लिए, दस बजे उसे क्लब जाना है, दोपहर को शाम के लिए ढेर सारे सैंडविचेज बनाने हैं और शाम को तो जाना ही है. कल रात देर तक नींद नहीं आई, आज के लिए बातें सोचता रहा मन, सुबह अलार्म न बजने पर भी उसी मन ने उठा दिया. आज ठीक से पढ़ा सकी, विद्या निवास मिश्र का निबन्ध ‘मेरा गाँव मेरा घर’ बहुत अच्छा है. सुबह से ही सेक्रेटरी के तीन-चार फोन आ चुके हैं, वह उससे ज्यादा ही नर्वस हैं, वह इस वक्त अंश मात्र भी नर्वस नहीं है, जे कृष्णामूर्ति की पुस्तक, जो सौभाग्य से दोबारा मिल गयी है, में कई अच्छे सुझाव पढ़े, व्यक्ति को निरिक्षण करने, सुनने और समझने की कला सीखनी चाहिए और मन को हमेशा पूर्वाग्रहों से मुक्त रखना चाहिए.

आज की सुबह सामान्य दिनों की तरह ही गुजर रही है. सुबह उठी तो बादल थे, अँधेरा भी था, सूरज अभी भी बादलों के पीछे आराम कर रहा होगा. गुलजार की कविताएँ पढ़ीं, उनमें एक दर्द है और एक पहचान भी लगती है उनसे, शायद हर कवि मन एक सा धडकता है. अभी कुछ देर पूर्व उसी बातूनी सखी का फोन आया, छोटा बेटा अस्वस्थ है, वह खुद भी ठीक नहीं है, नौकरी करना क्या इतना आसान है, घर-परिवार अपना सुख-आराम सब कुछ भुलाना पड़ता है. नैनी के बेटे ने साइकिल ठीक करने के लिए सहायता मांगी है, कल दोपहर को बैक डोर पड़ोसिन आई थी, उसे यह पता भी करना था कि वह नैनी को कितने पैसे देती है, उसने अहसास दिलाया कि वह ज्यादा दे रही है. ईश्वर ने इतनी सामर्थ्य दी है तभी यह सम्भव है. कल शाम दस दिनों के बाद घर पर रहना भला लग रहा था. जून कल खेलने भी जा पाए.


2 comments:

  1. @ ईश्वर ने इतनी सामर्थ्य दी है तभी यह सम्भव है.
    - एक ही बात को देखने की दृष्टि कितनी अलग हो सकती ।

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  2. सचमुच...और जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि...आभार!

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