Wednesday, September 11, 2013

अमरूद का पेड़


आज सुबह वह एक नई परिचिता से मिलने गयी, अच्छा लगा उसका घर, बातें कुछ ज्यादा ही करती है, इतनी सी देर में अपने घर-परिवार के बारे में कई बातें बता गयी. वाणी पर संयम तो वह खुद भी नहीं रख पाती है, जून को कितनी बातें कह दीं, आत्मसंतोष में डूबा हुआ मन हवा के एक झोंके से बिखर गया, शायद यह उसका संस्कार है, innate quality, जून के शब्दों में. पिता का पत्र आया है, उन्होंने उन प्रश्नों एक उत्तर या कहें उन शब्दों के अर्थ लिख भेजे हैं जो उसने पूछे थे. कल से हक्सले की किताब भी पढ़ेगी, संसार में इतना ज्ञान है कि सौ जन्म भी लेने पड़ें तो पूरा ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता, किन्तु आत्मज्ञान से बढकर कोई ज्ञान नहीं, उसकी जैसे स्थिति है उसमें तो यह बहुत आवश्यक है कि मन को सदा सजग रख पाए, विकारों से दूर, शांत और पवित्र, कहीं कोई उहापोह नहीं, कोई विक्षोभ नहीं, हर स्थिति में गम्भीर, एकाग्र, उस एक में जो अनेक रूपों में दिखाई देता है. वह जो अंदर कहीं सोया हुआ है.

आँखें नींद से बोझिल थीं और मन जैसे पूरी तरह सजग नहीं था, प्रमादवश सुस्ता रहा था और उसके हाथों की किताब The perennial philosophy by Aldous Huxley कब गिर गयी पता ही नहीं चला. दोपहर से जून के जाने के बाद से यह पुस्तक पढ़ने का प्रयत्न कर रही थी पर विषय इतना गम्भीर है और वैसे भी लंच में दही-चावल खाया था, शायद इसी कारण नींद ने धर दबोचा. कई दिनों से अलमारियां ठीक करने की सोच रही थी पर लगता है आज नहीं होंगी. नन्हे के आने का वक्त हो चला है. बहुत दिनों के बाद टीवी खोला है, ‘शांति’ इतना आगे बढ़ गया है की कुछ समझ में नहीं आ रहा, वैसे भी अब इसमें मन नहीं लगता.

शाम के पांच बजने को हैं, जून दफ्तर से आकर आराम कर रहे हैं, नन्हा टीवी देखते हुए ड्राइंग बना रहा है, उसे बगीचे में गुलाब के पौधों की देख रेख के लिए जाना है, पर धूप अभी भी तेज है. सुबह दादा की बातें सुनीं, उनसे प्रेरित होकर उसने मृत्यु पर एक कविता लिखी, आज एक सुंदर वाक्य उन्होंने कहा-
In other living creatures ignorance of self is nature; in man it is vice.

आज शाम वे एक मित्र के यहाँ गये और अपने पेड़ के अमरूद भी दिए, यानि उस पेड़ के जो खुशकिस्मती से उनके बगीचे में लगा है लेकिन न ही उन्होंने इसे लगाया है और न ही जब वे यह घर छोडकर जायेंगे तो उनके साथ जायेगा यानि अपना तो नहीं हुआ न, पर लोकाचार की भाषा में ऐसा ही कहते हैं, पर जब मन सजग रहे और भाषा व वाणी पर नजर रखे तो अपना पेड़ कहना खटकता जरुर है.

कल इतवार था, बहुत दिनों के बाद जून ने सिन्धी कढ़ी बनाई, उसने सारे खतों के जवाब दिए, मंझले भाई को भी राखी भेज दी, आजकल वह नियमित और अच्छे खत लिखता है. आजकल सुबह नन्हे को जबरदस्ती उठाने में फिर मेहनत करनी पडती है, पर जब क्लब से टाईकांडू सीखकर आता है तो बहुत खुश होता है. सुबह-सुबह डांटना उसे अच्छा तो नहीं लगता पर सोचती है सीखने का उसे शौक है तो कुछ तो त्याग करना ही पड़ेगा. उसे लगा घंटी बजी, पर बाहर जाकर देखा तो कोई नहीं था, लगा, कहानियाँ सोचती है तो कहानियाँ गढती भी है.

शाम के सवा छह बजे हैं, जून अभी तक दफ्तर से नहीं आए हैं, ईश्वर से प्रार्थना है उनका वह उपकरण ठीक हो जाये जिस ठीक करने कोई इंजीनियर आए हैं, और जिसकी वजह से कल भी वह सात बजे आए. नन्हा आज सुबह क्लब गया तो नौ बजे वापस आया जबकि रोज साढ़े छह बजे आ जाता है, पर वह परेशान नहीं हुई, जून की कही बात याद थी, कभी भी नकारात्मक नहीं सोचना चाहिए. आज कई दिनों से चल रही स्वीपर्स की हड़ताल भी खत्म हो गयी.

होठों पे हँसी आँखों में ख़ुशी सी क्यों है
महकी-महकी सी हवा धूप गुनगुनी क्यों है

पा चुके क्या उसका पता ओ मुसाफिर
जमीं थी कदमों तले आसमा क्यों है

दिल ही दिल में बुने ख्वाब उल्फत के
मौसमों को फिर इनकी खबर क्यों है




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