Wednesday, December 19, 2012

कैरम का खेल



जून आज सुबह जल्दी चले गए, देर रात तक लौटेंगे, सो दोपहर वह और नन्हा उन्हीं दूर की रिश्तेदार के यहाँ गए, बहुत सी बातें हुईं, अच्छा लगा वहाँ, नन्हा तो पूरा वक्त खेलता ही रहा. वहाँ एक और परिचिता मिल गयीं, जो वापसी में अपने घर ले गयीं, जिसमें उन्होंने अभी-अभी शिफ्ट किया है. घर लौटते-लौटते चार बज गए थे, उसे थोड़ी थकान हो रही थी पर नन्हा, गजब का स्टेमिना होता है बच्चों में, इतना खेलने के बाद भी शाम को खेलने के लिए तैयार हो गया. खेल कर आया तो होमवर्क करने बैठ गया, तभी उसकी एक बंगाली मित्र आ गयी मिलने, यानि पूरा दिन ही व्यस्तता में बीत गया. अकेलेपन का अहसास ही नहीं हुआ, पर वह नहीं हैं यह बात तो याद आती ही है हर बात में...वह इतना ख्याल रखते हैं उन दोनों का कि...कल ‘बंद’ है गणतंत्र दिवस के कारण, यहाँ छब्बीस जनवरी हो या पन्द्रह अगस्त यही होता है. टीवी पर ही देख पाएंगे झंडा आरोहण वे लोग.

रिपब्लिक डे ! आज एक अनूठे उत्साह से मन ओत-प्रोत है. जून और उसने साथ-साथ परेड देखी, यूँ उन्हें इतना शौक नहीं है टीवी देखने का, सारे काम निपटाते रहे, ताकि वह आराम से परेड देख सके. सुबह की चाय, गाजर का हलवा, और दोपहर का पुलाव भी बनाया, उसने बस तैयारी भर की. दोपहर को धूप में अलसाये भी. पिछले दिनों वह सोच रही थी कि अब उन्हें एक-दूसरे की कमी पहले की सी नहीं खलती, पर मूड की बात होती है और यह कोई ऐसी बात नहीं है जिसके लिए कोई हार्ड और फास्ट नियम बनाएँ जा सकें, कभी-कभी मन अपने आप ही व्याकुल हो जाता है और अक्सर ऐसा नहीं होता, यह भी सच है. विवाह के छह वर्ष भी तो गुजर गए हैं लेकिन साथ रहना कितना भला लगता है यह बात और है कि कभी-कभी रात को नींद नहीं आती...आजादी याद आती है...उसे लगा यह क्या लिखती जा रही है...कल वह चले जायेंगे और फिर अकेले रहना होगा. आज की फिल्म महानंदा ठीक सी ही थी पर देखी हुई थी, सो वे कैरम खेलने लगे. सोनू ने कल उनके किसी बात पर झगड़ने पर कैसे मासूमियत से कहा, अब मुझ पर असर पड़ेगा ! पूछा, किस बात का असर...तो बोला, आपके बोलने का, उसने कभी सुना होगा माँ-बाप की लड़ाई का असर बच्चों पर पड़ता है..कितना भावुक है वह और कितना प्यारा भी...परसों उसका टेस्ट है, तैयारी तो ठीक है..देखें क्या करता है.

इतवार है आज, जून दोपहर को ही चले गए, नन्हा सो रहा है और वह कुछ सोच रही है. परसों बालकवि बैरागी की कविता- सड़कों पर आ गए अंगारे.. बहुत अच्छी लगी थी. दिक्कत यह है कि कविता की लाइनें उसे याद नहीं हैं पर भाव अच्छी तरह से याद हैं, गोविन्द व्यास भी अच्छे रहे, और शरद जोशी थोड़ा कम जितनी उनसे उम्मीद थी..पर विचार बहुत अनूठे थे उनके भी. अनजान कवयित्री बस यूँ ही सी थी एक शेर को छोड़कर बाकी तुकबंदी थी. गाँधी जी के सपनों का जहान भी ठीक था पर उसे लाएगा कौन ? इन कवियों की बातें लोग (उस  जैसे) रात को सुनते हैं और सुबह भूल जाते हैं, दिल को अच्छी लगती हैं, भाव जगाती हैं, सहलाती हैं, प्रश्न करती हैं, बस यही तो काम है कविताओं का..उसने कविता लिखना क्यों छोड़ दिया ? क्या अब वह नहीं लिख सकती..या पहले भी जो लिखा करती थी वह तुकबंदी ही थी..वह लिखे किस पर...हर रोज बढ़ते अपने मोटापे पर...चाह कर भी व्यायाम न करने की अपनी दुर्बलता पर..यूँ ही व्यर्थ होते समय पर पर या बढ़ती हुई उम्र पर, सोनू के नन्हें सवालों पर या...इस खालीपन पर...अपने मन की उर्जा को यूँ ही से कार्यों में खर्च करने पर...अपने नेह की गर्मी को बातों की गरमी में बदलने पर ...खैर इस तरह तो लिस्ट बहुत लम्बी हो सकती है.
कल शाम को चिक्की बनाने की कोशिश की, थोड़ी सी बनाई और जब खायी तो..शायद उसके बाद पानी भी पिया होगा या फिर किसी और वजह से ही उसका गला खराब हो गया है, सुबह सोकर उठी तो आवाज जैसे फंस रही थी. जून का फोन आया, वह कल आने वाले हैं, बताया तो शाम को ही वह आने को तैयार थे पर उसने मना कर दिया, थोड़ी सी खराश ही तो है, ठीक हो जायेगी.
आज सुबह उठी तो सबसे पहले बोलना चाहा, एक शब्द भी नहीं सुनाई दिया कानों को, उसकी आवाज तो बिलकुल ही बंद हो गयी लगती है, जून अगर कल ही आ जाते तो अच्छा रहता लेकिन वह शाम को आएंगे, उसकी समझ में नहीं आ रहा है की क्या करे, सिर में भी दर्द है, नन्हा कह रहा है डिस्प्रिन लेने के लिए.

जून कल शाम आ गए थे पर काफी इंतजार कराया, सिर दर्द बढता गया और फिर जो अक्सर ऐसी में होता है खाया-पिया बाहर, गला बंद, लेकिन जून ने आते ही इलाज शुरू कर दिया. दिन भर के थके होने के बावजूद. कार की सर्विसिंग कराते हुए आए थे, काफी वक्त लग गया और फिर उसकी चिंता भी थी. एक प्रशिक्षित नर्स की तरह उसकी देखभाल करते रहे. आज सुबह वे अस्पताल गए पांच तरह की दवाएं दी हैं डॉक्टर ने. फेरिनजाईटिस शायद यही नाम है उसकी बीमारी का.

The happy and sad years  यह उपन्यास वह तीन-चार दिनों से पढ़ रही है पर अब पढ़ा नहीं जा रहा आँखों में दर्द होने लगा है, उसकी नायिका अजीब जीवट की लड़की है, ऐसे लोग कम ही होते हैं दुनिया में. Susannah Curtis का यह नॉवल उन्होंने कोलकाता में फुटपाथ से खरीदा था मात्र दस रूपये में. जिस हरे पेन से वह लिख रही थी वह ठीक से नहीं लिख रहा था और यह काला पेन भी उससे बेहतर तो नहीं है उसकी डायरी लाल, हरे, नीले, काले रंगों से भरती जा रही है.


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