जनवरी का अंतिम दिन, वह कब से डायरी
लिखने की प्रतीक्षा कर रही थी, जून अभी-अभी नन्हे को लेकर क्लब गए हैं और यही वक्त
है जब वह अपने आप से कुछ बातें कर सकती है. यूँ सच कहे तो अपनेआप से बातें किये
उसे वर्षों बीत गए हैं, क्योंकि उसके लिए हिम्मत चाहिए, अपने को कटघरे में खड़े
करना आसान है क्या? तो वह अक्सर इस डायरी से ही बातें करती है. शायद आज भी ऐसा ही
होगा. उसका गला आज काफी ठीक है, जून के प्यार और देखभाल के कारण ही यह ठीक हुआ है.
उसके लिए जितना उसे करना चाहिए वह नहीं कर
पाती है. उसके प्रेम के सामने...यह प्रेम है या कर्त्तव्य? कुछ भी हो, उसके
भीतर पहले का सा भाव न रहा हो फिर भी वे एक-दूसरे के लिए हैं. परसों उन्हें फिर
फील्ड जाना है और इस बार चार-पांच दिनों के बाद ही आयेंगे. इस हफ्ते का चौथा दिन
है वह कहीं नहीं गयी और न ही कोई उनके घर आया यह उसका सौभाग्य ही था क्योंकि वह
बोल ही नहीं सकती थी. हाँ, आज पड़ोसियों ने जरूर पूछा उसके स्वास्थ्य के बारे में.
नए साल का दूसरा माह शुरू
भी हो गया है और वे हैं कि वहीं खड़े हैं, कभी-कभी अपने आप से चिढ़ होने लगती है कि
वह कुछ करती क्यों नहीं? कुछ ऐसा विशेष जो सार्थक हो-रचना किसी भी वस्तु की, सृजन
किसी का भी, शिल्प, कला, कविता कुछ भी..कुछ भी ऐसा जिसमें वह खुद को व्यक्त कर
सके. कुछ ऐसा जरूर ही करना चाहिए, चित्र ही सही या फिर शब्दों का खेल...अच्छा यहीं
से आरम्भ करेगी, उसने सोचा. इराक, अमेरिका में जो युद्ध हो रहा है उसकी विभीषका पर
कुछ कहना नहीं है क्या उसे?
ओ दानव !
क्या अब भी बुझी नहीं तुम्हारी
प्यास
रक्त के नद में तैरते हुए
भी
हजारों के श्रम से बने शहर
खाकर भी
तुम भूखे हो
जो बेजबान पंछियों, निरीह
जीवों को
निगलना चाहते हो
युद्द के दानव
तुम्हें चाहिए शिशुओं के
आँसू, क्रन्दन और रुदन
पीड़ा, दर्द, घुटन, अंधकार
और निराशा
यही तुम्हारे साम्राज्य के
सिपाही हैं
मिसाइलें, बंदूकें, बम और
अनगिनत हथियार
जिनके नाम भी वे नहीं
जानते
तुम चलाते हो उन पर
इन बहादुर सैनिकों के
हाथों
जिन्होंने प्यार से छुआ
होगा अपनी
प्रिया के बालों को,
बच्चों के गालों को
ओ दानव ! कितने क्रूर हो
तुम
नहीं देखा तुमने
घर कैसे बनता है
अपने सीने से लगाकर कैसे
बड़ा किया जाता है
बच्चों को
क्या इसलिए कि तुम उड़ा दो
उनके स्कूलों को
तुम्हें बूढ़ों पर भी दया
नहीं आती
वृद्धाश्रम से आती दिल
दहलाने वाली पुकारें
नहीं सुनते क्या तुम
उन रातों के तुम नहीं हो
गवाह
जब दिल के पास छिपाकर
बाँहों में
जीवन भर साथ चलने का वादा
लेती है कोई स्त्री
और अगली ही रात तुम आकर
चीर डालते हो
दोनों को लकड़ी की तरह अलग
अलग
आकाश..धरा..सागर..हवा..क्या
कोई भी नहीं
बचेगा तुम्हारे पंजो से
जहरीली हवा, काला धुँधुआता
आकाश..लोहित जल..यही तुम्हारा अभीष्ट है
ओ मानव ! युद्ध के दानव को
क्यों नहीं रोका
क्यों उसे बुलाया
मानव ही जब बन जाता है
दानव
तभी भयानक युद्ध होते हैं
सभ्यताएँ सिर धुनती हैं
और वे मूक दर्शक से
सब कुछ देखते हैं, सब
सुनते हैं..लेकिन कुछ कर नही पाते...
No comments:
Post a Comment